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संदिग्धो विजयो युद्धेऽसंदिग्धः पुरुषक्षयः । सत्स्वन्येष्वित्युपायेषु भूपो युद्धं विवर्जयेत् ॥
लघ्व० पृ० २७ लो० २०. अर्थात्ः -- यदि युद्ध में विजय होने का सन्देह हो और जन संहार स्पष्ट दिखाई देता हो तो दूसरे उपायों को काम में लेकर युद्ध का परित्याग
श्रेयस्कर है।
" पुरुषक्षयः " से पाठक भलीभान्ति समझ सकते हैं कि हेमचन्द्राचार्य ने राजनीति में भी अहिंसा को कितना ऊँचा स्थान दिया है ।
कूट युद्ध के लिये वैदिक राजनीति की तरह जैन राजनीति भी विरुद्ध है । जैसे:
न कूटैरायुधैहन्यात् युध्यमानो रणे रिपून् । न कर्णिभिर्नापि दिग्धैर्नाग्निज्वलित तेजनैः ॥
मनु० अ० ७ श्लो० ६० । अर्थात्ः संग्राम में कूट शस्त्रों से, जलते हुए अग्नि कर्णिका के सदृश फल बाले, विष से, बुझे हुए तथा जलते हुए अग्निबाणों से शत्रु को कभी न मारे ।
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ध्वनी में इसी प्रकार का एक श्लोक है:नातिरूत्तै विषाक्तैर्न नैव कूटायुधैस्तथा । दृषन्मृदादिभिर्नैव युध्येत् नाग्निता, पतैः ॥
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पृ०० इष रेलों० ५६। अर्थात्ः - श्रत रूखे, विष से बुझे हुए श्री अग्नि में तपीए हुए श्रादि कूट शस्त्रों से युद्ध न करे !
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लवई नीति में दंड देने के लिये दस स्थान बताए
(१) उदर । (२) उपस्थ । (३) जिल्हा । (४) हा । (५) कान (६) धन । (७) देह । (८) पाद । (६) नासा । (१०) चक्षु । इनमें से
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