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जसे: - ( १ ) वर्णाश्रम विभाग । (२) संस्कार विधि । (३) कृषि वाणिज्य शिल्प विधि | ( ४ ) व्यबहार विधि । (५) राजनीति मार्ग । (६) पुरपट्टन विधि । (७) विद्या । (८) क्रिया लौकिक तथा पारलौकिक ।
आदि पुराण के तीसरे पर्व में श्री जिन सेन ने भी श्री ऋषभ देव को ही नीति शास्त्र का प्रवर्तक लिखा है । श्रादिराज ऋषभ देव ने कर्म को छः भागों में बांटा । (१) युद्ध । (२) कृषि । (३) साहित्य | (४) शिल्प ( ५ ) वाणिज्व । (६) व्यवसाय । ग्राम और नगर की पद्धति भी उन्हों ने चलाई । दण्डशाला और बन्दिशाला का प्रारम्भ भी उन्होंने ही किया । मनुष्यों में वर्ण व्यवस्था की मर्यादा भी उन्होंने चलाई। इससे यह स्पष्ट है कि जैनियों की स्वतन्त्र राजनैतिक मर्यादा उनके आदि तीर्थंकर ऋषभ देव से ही चली आती रही किन्तु जब जैन राजसत्ता समाप्त हो गई तो जैन राजनीति शास्त्र भी उत्तरोत्तर लुप्त होता गया और अन्त में स्थिति यहां तक पहुँची कि वे वैदिक नीति से ही शासित होने लगे ।
यदि जैन राजनीति और वैदिक राजनीति में तुलना की जाय तो बहुत सी बातों में सर्वथा समानता पाई जाती है और बहुत सी सर्वथा एक दूसरे से भिन्न हैं । उदाहरण के लिये समानता देखिये:अनित्यो विजयो यस्मादृश्यते युद्धयमानयोः ।
पराजयश्च सप्रामे तस्माद्ध विवर्जयेत् ॥
मनु० ० ७ श्लो० १६६. अर्थात्ः - युद्ध करने से पूर्व यदि किसी राजा को विजय में सन्देह हो और पराजय निश्चित हो तो ऐसी स्थिति में युद्ध का परित्याग करना चाहिये ।
हेमचन्द्राचार्य का भी ठीक ऐसा हो मन्तव्य है जैसे:
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