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अर्थात्- राजा कुमारपाल के अाग्रह से प्राचीन काल से चले आते अईनीति नामक शास्त्र से कुछ सार लेकर राजा और प्रजा दोनों के हित के लिये शीघ्र स्मण होने योग्य लध्वहनीति नाम के शास्त्र की रचना करता हूं। उपर्युक्त उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जैनराजनीति पर शास्त्र प्राचीन काल से चला आता था किन्तु वह उत्तरोत्तर लुप्त होता गया। अब तो वह बिल्कुल लुप्त हो चुका है। इस के केवल कुछ उद्धरण यत्र तत्र लघ्वहनीति में विखरे मिलते हैं । जैसे:इति संक्षेपतः प्रोक्तः ऋणदान क्रमो ह्ययम्। विस्तारो बृ दहनीति शास्त्र वर्णितो भृशम् ॥
ऋणदान प्रकरण पृ. ६६. एव देय विधिः प्रोक्तः सभेदो विस्तरेण वै । महाहनीति शास्त्राच ज्ञेयस्त दभिलाषिभिः ॥
देय विधि प्रकरण पृ० १०६. लध्वनीति में जैन राजनीति के विषय संक्षेप से वर्णन किये हुए हैं । जहां विस्तार की बात आती है वह लिख दिया गया है कि यदि विस्तार से देखना हो तो वृहदहनीति शास्त्र से देख सकते हैं।
लघ्वहनीति में लिखा है कि जैन धर्म के श्रादि तीर्थकर भी ऋषभ स्वामी के पूर्व भी नीति शास्त्र का प्रभाव न था किन्तु कलयुग के प्रभाव के कारण वह लुप्त प्रायः हो गया था । नीति शास्त्र के लुप्त होने पर सामाजिक शिथिलता बढ़ने लगी और लोग बड़े दुखी हो गए। लोगों के कल्याण के लिये ऋषभ स्वामी ने नीति शास्त्र को पुन: उज्जीवित किया इस कारण ऋषभ देव को नीति शास्त्र का प्रवर्तक माना जाता है। लघ्वहनीति में लिखा है कि लोगों को सामाजिक मर्यादा में बांधने के लिये अषभ देव ने कुछ मर्यादाएं स्थापित की।
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