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________________ ( ३३ ) लगा कर अपनी मांस नोलुपता के स्वार्थ को सिद्ध करेंगे । इससे शास्त्र की निन्दा होगी । मैं तो सब तरह के मांसाहार का निषेध करता हूं ।' उपर्युक्त लंकावतार के उद्धरण से तो यह स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध ने न तो कभी स्वयं ही मांसाहार का सेवन किया और न उसकी अनुज्ञा ही अपने अनुयायियों को दी। किन्तु मांसलोलुपी मनुष्यों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये वनस्पतिपरक शास्त्रीय पाठों का मांस अर्थ किया और वौद्ध धर्म पर हिंसा का कलङ्क लगाया । अस्तु, यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि वैदिक धर्म के समान बौद्ध धर्म में भी ऐसे शास्त्रीय पाठों के आधार पर जिनका मांसपरक और वनस्पतिपरक अर्थ हो सकता था दो बड़े पक्ष या सम्प्रदाय खड़े हुए जिनका पारस्परिक बड़ा विरोध और संघर्ष चलता रहा । जैन धर्म में इसके विपरीत वनस्पतिपरक शब्दों का मांसवरक अर्थ कुछ विद्वानों ने किया अवश्य किन्तु उसके कारण से या उसी के आधार पर जैन समाज में किसी नए सम्प्रदाय का जन्म नहीं हुआ। सम्भव न था क्योंकि जैन परम्परा में अनादिकाल से कभी भी ऐसे मांसलोलुपी या हिंसा में प्रवृत लोग पैदा ही नहीं हुए जो ऐसा करते और यदि हो भी जाते तो जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म होने के कारण वे ऐसा साहस न कर सकते थे । अतः वैदिक बौद्ध और जैन इन तीनों भारतीय महान् धर्मों के हिंसा हिंसा विषयक विश्लेषण से पाठकों को भजीभांति स्पष्ट होगया होगा कि तीनों में जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसके अनुयायियों ने 'अहिंसा परमो धर्मः' के तात्त्विक महत्त्व को समझा है । जैन धर्म का सारा इतिहास अहिंसा धर्म को प्रधानता से भरा पड़ा है। उसके सारे सिद्धान्त अहिंसा की मोहर से अलंकृत हैं और उसका सारा कर्मकाण्ड अहिंसा की उत्कृष्टता का द्योतक है । ऐसा होना भी अस्तु, अन्त मैं पाठकों को यही बताना चाहता हूं कि विश्व का www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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