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ज्ञात्वा निर्वाणमासन्न संमेतादौ ययौ प्रभुः । त्रयस्त्रिशन्मुनि युतो मासं वनशनं व्यवात् ॥ (त्रिष. श. पु. च. पृष्ठ २१६ )
अर्थात् निर्वाण के समय श्री पार्श्वनाथ प्रभु संमेत शिखर पर आए । ३३ मुनि भी उन के साथ थे और उन्होंने वहाँ महीने का अनशन भी किया !
इस प्रकार के वर्णन प्रभु पार्श्वनाथ के विषय में शास्त्रों में यत्र तत्र उस ऐतिहासिक सत्य को पुष्टि करते हैं, जिस के आधार पर अबतक परंपरा से चले आते संमेत शिखर को पार्श्वनाथ पहाड़ी के नाम से पुकारा जाता है । इस तरह जैन धर्म के २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी स्वामी ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध हो जाते हैं ।
उपर्युक्त विश्लेषण से पाठक यह न समझे कि श्री पर्श्वनाथ प्रभु ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध हो चुके हैं । इस कारण जैनधर्म का प्रारम्भ उन से ही समझना चाहिये | ऐसा समझना सत्य से दूर जाना होगा । भगवान् महावीर और श्री पार्श्वनाथ प्रभु इन दो अवतारों के अतिरितः अन्य २२ तीर्थकरों के विषय में हम भले ही प्राधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से महत्व रखने वाले प्रमाण देने में असमर्थ हो किन्तु इस का अर्थ यह नहीं कि वे वास्तव में काल्पनिक ही हैं। उन के जीवन के विषय में कुछ एक प्रमाण ऐसे मिलते हैं जिन्हें महत्व दिया जाना चाहिये । मथुरा में कंकाली टीले की खुदाई से बहुत से जैनधर्म के प्रतोक अवशेष निकले हैं । इनका समय ईसा पूर्व २०० वर्ष है । यहां से जो शिलालेख मिले हैं उन में भक्तों ने अपनी श्रद्धाञ्जलि श्री ऋषभनाथ जी स्वामी को इस प्रकार दी है:
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प्रीयतां भगवान् ऋषभ श्रीः ।
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