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याद रहे कि ऋषभ स्वामी जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं । इस के अतिरिक्त प्रायः सभी शिलालेखों में 33 नमोरिहंताणं श्राता हैं | जिसका अर्थ स्पष्ट है कि एक या दो नहीं किन्तु चहुत से तीर्थकरों को श्रद्धाञ्जल दो गई है । यदि भगवान् महावीर स्वामी या पार्श्वनाथ प्रभु से जैनधर्म का प्रारम्भ हुआ होता तो उन दोनों के खा एक के नाम लिखकर ही श्रद्धाञ्जलियां दा होतीं । ऐसा न कर के यादि तीर्थंकर ऋषभ स्वामी का नाम शिलालेखों में आता है। जिन को श्रद्धाञ्जलि
गई है और उनके अतिरिक्त बाकी के सब तोर्थंकरों को श्रद्धाञ्जलियां दी गई हैं । इस से यह स्पष्ट है कि श्री ऋषभ स्वामी से ले कर अन्य सत्र तीर्थंकर समय समय पर अवतार ले चुके हैं और उन सबके लिये ही कंक लीट ले के शिलालेखों में श्रद्धाञ्जलियां अर्पित की गई हैं ।
निस्मन्देह हमारे पास ऐसे अकाट्य और वजनदार प्रमाण नहीं हैं, जिन के आधार पर चोबीस तीर्थंकरों का हा ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध कर दिया जाए, किन्तु जैसे २ उत्तरोत्तर खोज होती जायेगी और इतिहास पर प्रकाश पड़ता जाय वैन २ न की काल्पनिक बातें सत्यरूप में मानी जाने लगेंगी । पहिले तो लोग जैन धर्म का बौद्ध धर्म से पृथक् अस्तित्व ही नहीं मानते थे किन्तु अत्र मानते हैं । पहिले तो लोग भगवान् महावीर स्वामी और पार्श्वनाथ प्रभु को भौ ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं मानते थे, किन्तु अब सभी विद्वान् मानते हैं । भविष्य में जैसे ही प्रमाण मिलते जाएंगे, वैसे ही अन्य तीर्थंकरों को भी ऐतिहासिक व्यक्ति मान लिया जायगा ।
वैदिक धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद को कुछ विद्वान् ईसा पूर्व १२०० वर्ष मानते थे और कुछ २५०० वर्ष मानते थे किन्तु मोहन जोदड़ो नगर की खुदाई के बाद जो खोज हुई है उस के आधार पर
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