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॥ द्राविड़ जाति में जैन धर्म |
___ कुछ भारतीय विद्वान् तो भारत को अनादिकाल से प्रार्यों का निवास स्थान मानते हैं किन्तु कुछ विद्वान् भाषा विज्ञान के आधार पर तथा अन्य कई ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पार्यो का बाहर से भारत में आगमन बताते हैं । आजतक हुई गवेषणा से यह स्पष्ट है कि प्रायों के भारत में प्रागमन से पूर्व यहां द्राबड़ जाति के लोग रहते थे। द्राविड़ जाति के तुर्गस, भृगु, गु ह्य श्रादि कई भेद थे । इतिहास से यह जाति भारत की प्राचीनतम जाति सिद्ध होती है । आर्यों के भारत में प्रागमन के पश्चात् दोनों जातियों में काफी संघर्ष चलता रहा। वैदिक धर्म का अति प्राचीन धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद इस को साक्षी देता है। उदाहरण के लिये सुदास के पिता दिवोदास ने यदु और तुर्वसों को हराया।
ऋग्वेद ८, ६१, २
कुछ काल पश्चात् दोनो जातियां शान्ति पूर्वक रहने लगीं। दोनों जातियों में विवाह सम्बन्ध भी होने लगे, और दोनों ने एक दूसरे के देवताओं को भी अपना लिया और उन की पूजा करने लगे। द्राविड़ लोग नाग पूजा करते थे। आर्यलोगों ने भी इसे अपनाया। अाजकल भी जो नाग पंचमी का त्योहार चला आता है वह उसी प्राचीन प्रथा का प्रतीक है। द्राविड़ों ने आर्य जाति के विष्णु आदि देवों को मानना और पूजना प्रारम्भ कर दिया । भगवान् शंकर के गले में सों की मालाएं शायद उसी द्राविड़ और अार्यों के पारस्परिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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