________________
( १० )
संमिश्रण को प्रकट करती हैं। जैनों के मातवें और तेईसवें तीर्थंकरों के शिरों पर सर्पफण के चिन्हों का भी होना कुछ २ उसी प्राचीन सभ्यता की झलक हो सकता है। अपने २ धर्म ग्रन्थों के अनुसार हम भले ही इन चिन्हों का जैसा चाहें अर्थ कर लें किन्तु साथ २ चले आते धर्मों के पारस्परिक प्रभाव को छिपाया नहीं जा मकता ।
द्राविड़ जाति के लोग जिन्हें आर्य अपना शत्रु मानते थे और अनार्य कह कर पुकारते थे अन्त में आर्य लोगों को प्रभावित करने में सफल हुए। यहां तक कि वे हिन्दू हो नहीं ब्राह्मण बन गये । किन्तु विशेषता यह रही कि ब्राह्मण बनकर पी वे द्राविड़ जाति से अलग नहीं हुए । द्राविड़ जाति का गौरव सदा उन के सामने रहता था। आर्य जाति के मूलपुरुष मनु को भी उन्हों ने द्राविड़ बना डाला । भागवत पुराण में लिखा है:
योऽसौ सत्यब्रतो नाम राजर्षि विड़ेश्वरः ।
स वै विवस्वतः पुत्रो मनुरासोदिति श्रु तम् ॥ अर्थात् सत्यव्रत नाम का राजर्षि द्रविड़ राजा ही वैवस्वत मनु बनगया ।
इस श्लोक में तो अायों की उत्पत्ति ही द्राविड़ों से होने का प्रयत्न किया गया है । जो सनथा असत्य है किन्तु तत्कालीन द्रविड़ों के व्यापक प्रभाव का इस से स्पष्ट पता चलता है। आर्य जाति शायद द्राविड़ लोगों को इतना प्रभाषित न कर सकी जितना द्राविड़ों ने प्रार्य बाति को किया । सुयोग्य विद्वान् पण्डित रघुनन्दन शर्मा जी वैदिक सम्पत्ति के पृष्ठ ३७७ पर लिखते हैं कि रावण भी द्रविड़ राजा था और उस ने वेदों पर भाष्य लिखा था। हिंसामय यश, सुरापान, मांसभक्षण, व्यभिचार और लिंगपूजनादि सब दूषित बातें द्रविड़ों से ही पार्यो में प्राई।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com