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श्री मिनबन्धु जो भारत वर्ष के इतिहास भाग १ पृष्ठ ६८ पर लिखते हैं कि:
"प्राचीन ग्रन्थों के अवलोकन से इतना अनुमान होता है कि यह अन र्य लोग भूत, प्रेत, पर्वत और वृक्ष अादि को पूजते थे । आर्य मत से रुद्रकाली, अादि के पूजन-विधान तत्कालिक अनार्यमत की छाया से समझ पड़ते हैं।"
अस्तु, उपयुक्त विवर्ण से यह स्पष्ट है कि द्रविड़ और आर्य जाति या धर्मों में संघर्ष के पश्चात् मेल हो गया था और दोनों ने एक दूसरे की संस्कृति को अपना लिया। निश्चित रूप से यह कहन। कठिन है कि कौन सी प्रथा किसने किससे अपनाई क्योकि धर्मग्रन्थों में निम पाठ को विद्वानों का एक दल प्रक्षिप्त मानता है उसी को दूसरा दल मौलिक स्वीकार करता है!
जैन धर्म को हम भारत में अनादि काल से चला पाता धर्म मानते हैं । अब प्रश्न यह है कि जब द्राविड़ और आर्य जाति में संघर्ष चल रहा था और जब अन्त में दोनों ने एक दूसरे की संस्कृति को अपना लिया । उस समय जैन धर्मका भी अस्तित्व मिलता है या नहीं ? अभी तक मेरे देखने में तो कोई ग्रन्थ नहीं अाया, जिस में उस समय के जैन धर्मके इतिहास का पता चल सके। हां यत्र तत्र जैन और वैदिक धर्म के प्रन्थों में कुछ उद्धरण अवश्य ऐसे पाते हैं जिनमें हम तत्कालीन जैन धर्म के अस्तित्व का पता लगा सकते हैं। जैसे दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का “दर्शन सार" नामक एक ग्रन्थ है । इस में बहुत से जैन संघों की स्थापना बताई गई है। दर्शनसार में लिखा है कि षज्र. नन्दी ने मथुरा में द्राविड़ संघ की स्थापना की । "श्री मूल" नामक मूल संघ की देव, नन्दी, सिंह, सेन नाम की चार शाखाएं हुई, और
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