SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२ ) उन चारों में द्राविड़ संत्र को स्थान नई मिला । वज्रनन्दी ने एक एक विद्वान् ने तो द्राविड़ स्थापना की । स्वतन्त्र ही द्राविड़ संघ की संघ को नन्दी संत्र की ही शाखा माना है किन्तु मुझे उसकी युक्तियां - संतोष जनक प्रतीत नहीं होतीं । श्राप लिखते हैं कि "अर्धवली ने मूल संघ को चार संवों में विभक्त किया और द्राविड़ संघ को उसमें नहीं रखा : यदि द्राविड़ सम्प्रदाय प्राचीन होता तो इन चारों में अयश्य आता अतः यह बाद की स्थापना है ।" यह युक्ति कोई सारपूर्ण प्रतीत नहीं होती। हो सकता है कि श्री मून संघ के साथ २ चले आते द्राविड संघ में कुछ सैद्धान्तिक मत भेद हों, जिन के कारण अर्धवली ने उसे अपने नवीन चार संघों में रखना उचित न समझा हो । श्रतएव चार संघों में द्राविड़ संघ का न रखा जाना उसकी प्राचीनता का वाधक नहीं है । अपने कथन की सिद्धि के लिये आप लिखते हैं कि "इरु गुलान्वय जिस में बड़े २ जैन गुरु हुए हैं और जिस का द्राविड़ संघ से महा सम्बन्ध था वह भी नन्दी संघ का ही भेद था" । इरु गुलान्वय को नन्दी संघ की शाखा मानने में हमें कोई श्रापत्ति नहीं, किन्तु दाविड़ संघ का इरु गुलान्वय से सम्बन्ध मात्र उसे नन्दी संघ की शाखा किसी सूरत में सिद्ध नहीं कर सकता । ११६० ईस्वी के रिकार्ड में जो द्राविड़ संघ के अनुयायी भूतवली, पुष्पदन्त, और समन्त भद्र श्रादि नाम श्राए हैं उन्हें द्राविड़ संघ के प्रचारक और उन्नति पथ पर लाने वाले मानना अधिक संगत मालूम होता है । द्राविड़ संघ से सम्बन्ध रखने वाले या उस के अनुयायी भद्रवाहु जिनका स्वर्गारोहण काल वीर संवत् १७० है उनको केवल लेखक ने उनकी स्मृति बनाए रखने के लिये लिख दिया है। ऐसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy