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उपेक्षा करना भी नहीं ऊँचता । इस लिये द्राविड़ संघ को श्री मून से भी प्राचीन या उसके साथ २ चला पाता संघ मानने में कोई बाधा मालूम नहीं देती।
इस प्रकार जैन धर्म में द्राविड़ संघ की स्थापना से यह भलो प्रकार अनुमान लगाया जा सकता है कि द्राविड़ जाति की भी कोई ऐमी शाखा अवश्य थी जो जैन धर्मावलम्बी थी। या दूसरे शब्दों में प्राचीन द्राविड़ जाति में जैनधर्म का अस्तित्व भी द्राविड़ संघ की स्थापना में कारण हो सकता है।
जैन साहित्य के अतिरिक्त वैदिक साहित्य में भी कुछ उदाहरण इस सत्य के पोषक हैं । जैनधर्म के ग्रादि तीर्थंकर ऋषभ स्वामी माने जाते हैं। भागवत् पुराण में ऋषभ कों वैष्णवों का अवतार माना है
और इस में वर्णित ऋषम जीवन चरित्र जैन आदि तीर्थकर मे बिल्कुल मिलता जुलता है । इतनी समानता है कि कोई सदेह नहीं रह जाता कि ये दोनों वैदिक और जैन ऋषभ भिन्न हैं । भागवत् में ऋषभ के सौ पुत्रों के वर्णन में यह श्लोक आता है:
कविहरि रन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः ।
आविर्होत्रोऽथ द्रविडश्चमसः करभाजनः ।।
यहां द्रविड़ शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है । भगवान् ऋषभ स्वामी को हम आदि तीर्थङ्कर मानते हैं। उन के पुत्र का द्रविड़ नाम भी द्राविड़ जाति में जैनधर्म का अस्तित्व सिद्ध करता है । यद्यपि भागवत् पुराण में इन राजकुमारों की भागवत धर्म का प्रचार करने बाले बताया है किन्तु यहां उन्हें जैन दृष्टि से देखा जा रहा है । वैदिक
और जैन धर्म का उस समय पारस्परिक संघर्ष होने के कारण एक दूसरे के सिद्धान्तों को परिवर्तित करना स्वाभाविक है ।
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