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जिस प्रकार वैदिक मन्तव्य के अनुसार परमात्मा इस सृष्टि को संहार के बाद ' यथा पूर्वमकल्पयत् ' पूर्व की तरह पुनः निर्माण करता है और पूर्व की तरह फिर भगवान् अनेक अवतारों के रूप में अवतरित होता है । इसी प्रकार जैन धर्म में भी समय समय पर पूर्ववत् तीर्थ कर अवतार लेते रहते हैं और जैन धर्म के ज्ञान की सत्यता को प्रकट करते रहते हैं । यह चक इसी प्रकार निरंतर चलता रहता है। जैनधर्म के आदि तीर्थकर भगवान् ऋषभ स्वामी थे और अन्तिम दो श्री पाव. नाथ जी और भगवान् महावीर जी । जैनधर्म की वैदिक धर्म से तुलना के साथ साथ इस बात का ध्यान रखना परमावश्यक है कि वैदिक धर्म संसार को प्रादि और अन्तवाला मानता है किन्तु जैन धर्म संसार को अनादि और अनन्त मानता है। श्रतएव जैन धर्म में वैदिक सिद्धान्त की तरह सृष्टि की उत्पत्ति और संहार नहीं होते किन्तु सृष्टि का प्रवाह उसी प्रकार अनन्त काल से चला आ रहा है और चलता रहेगा।
हां ! जैसे कि पहिले लिखा जा चुका है कि पहले तो जैनधर्म को बौद्ध धर्म की शाखा माना जाता था फिर महावीर स्वामी को जैनधर्म का उत्पादक माना जाने लगा, किन्तु अबतक की खोज के परिणाम स्वरूप जैनों के २३ वें तीर्थकर भी पार्श्वनाथ जी को भी ऐतिहासिक व्यक्ति माना जा चुका है। उदाहरण के लिये महावीर स्वामी जी के पिता सिद्धार्थ कश्यप गोत्र के थे और ज्ञातृ क्षत्रिय थे । 'नायकुल चंदे' ऐमा कल्प सूत्र में भी पाठ पाता है। महावीर स्वामी को उन के जोवन काल में भी लोग "ज्ञातृ पुत्र" के नाम से जानते थे । पाली में 'नात' ज्ञाति को ही कहते हैं। इस प्रकार "ज्ञातृ पुत्र" का अर्थ होता है "नात पुत्र" | "नाय पुत्र" और "नायपुत्त" की समानता प्रत्यक्ष है। बौद्धों के “सामाअफल सुत्त" में नात पुत्र के धर्म का वर्णन करते हुए इस प्रकार लिखा है:
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