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________________ ( २८ ) माना है। जैन धर्म के त र्थङ्कर भी क्षत्रिय । जैसे २ जैन धर्मावलम्बियों पर हिंसा अन्य कृषि आदि कर्मों को 1 बर्ण को ही सब से बड़ा वर्ण वर्ण में ही वतृत होते रहे हैं के सिद्धान्त का गहरा प्रभाव पड़ता गया वे छोड़ कर वाणिज्य की ओर झुकते गए क्योंकि बाणिज्य में अन्य व्यवसायों की अपेक्षा हिंसा कम होती है । वाणिज्य के प्रभाव से वे बड़ी संख्या में पू ंजीपति बनते गए पूंजी के प्रभाव से उनमें विलास प्रियता भी श्रा गई और विलास प्रियता के आने से जैसा अकसर लक्ष्मी का प्रभाव होता है उनसे वोरता के भाव भी नष्ट होने लग गए । इस प्रकार कई सदियों के निरन्तर वाणिज्य व्यवसाय के प्रभाव के परिणाम स्वरूप आज वे शुद्ध वैश्यों के रूप में हमारे सामने वर्तमान है । अतः आज की जैन समाज में यदि वीरता के अंश की कमी है ता उसके लिये जैन धर्म को या जैन धर्म के सिद्धान्तों को दोष युक्त नहीं ठहराया जा सकता । महात्मा बुद्ध का यदि कोई अनुयाया हिंसक हो तो इससे महात्मा बुद्ध को या बुद्ध धर्म को दोषी नहीं ठहराया जा सकता । मेरा तो यह विश्वास है कि प्रत्येक धर्म का संस्थापक या सुधारक उच्च कोटि के सिद्धान्तों को ही अपने अनुयायि के सामने रखता है । किन्तु देश काल और परिस्थितियों के कारण यदि उन सिद्धान्तों में परिवर्तन आ जाता है या उस धम के अनुयाया उन सिद्धान्तों में अपने दृष्टिकोण के अनुसार परिवर्तन कर लेते हैं तो इसमें किसी संस्थापक या सुधारक का दोष नहीं होता । राज्य की, अराजकता की और इस प्रकार की बातें वही लोग कर सर्वथा श्रनभिज्ञ हैं । जैन शास्त्रों कहानियें और जीवनियें मिनती अब रही बात जैन राजा के उसकी शत्रु द्वारा सहज दासता की। सकते हैं जो जैन शास्त्रों के मन्तव्य से में अनेक चक्रवर्ती जैन राजाओ की हैं । जैन राजा हिंसा को उचित स्थान देते हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat भी सुचारु रूप से www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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