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द्रव्य हिंसा के तो अनेक सुन्दर उदाहरण आप को वैदिक और बौद्ध धर्म ग्रन्थों में भी मिल जायगे किन्तु भाव हिंसा के इस प्रकार के उदाहरण अन्यत्र कम ही देखने में आते है। जैन धर्म मन, बाणी, और कर्म इन तानों से हिंसा के परित्याग की शिक्षा देता है।
जैन धर्म में "अहिंसा परमो धर्मः" के सिद्धान्त को अतिरूप में देखकर कई लोगों के मन में ये शंकाएं उठा करती है कि यदि जैनियों के हाथ में किसी देश का राज्य सौंप दिया जाए तो निस्संदेह वहाँ अराजकता के सिवाय और क्या हो सकता है। जो लोग कीड़ी को मारना आप समझते हैं वे दड प्रधान राज्य को कैसे चला सकते हैं। जैनी राजा किसी प्रकार की भों हिंसा करने के लिये तैयार न होगा और राज्य का चलाना हिंसा के बिना सर्वथा असंभव है। प्रजा में चोर, लुटेरे; धूर्त, और आतताहयों का कुछ संख्या में होना स्वभाषिक है और उन को दबाने केलिये हिंसा का प्राश्रय भो अनिवार्य है । इस के अतिरिक्त कोई बलवत्तर विदेशी राजा यदि चढ़ाई कर दे तो वह सहज ही में जैन राजा को अपना गुलाम बना सकता है और साथ २ उस की प्रजा को भी। बैनी राजा कभी भी हिंसा के भय से शत्रु से युद्ध करना पसंद न करेगा । हिंसा से वह परतन्त्रता को अच्छी समझेगा इस लिये जैनधर्म कायरों का धर्म है। भारत वर्ष में इस धर्म के अनुयायी भी प्रायः बनिये या वैश्य है । वैश्य जाति कभी भी वीरता के लिये प्रसिद्ध नहीं रही उल्टा कायरता का कोई दृष्टान्त देना हो तो ज़रूर लोग वैश्य जाति से देते है। .
इस प्रकार के विचार रखने वाले सन्जनो के लिये सर्व प्रथम मैं यह बताना चाहता हूं कि बैन धर्म अनन्त परंपरा से वास्तव में
क्षत्रियों का ही धर्म रहा है। यही कारण है कि जैन धर्म में क्षत्रिय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com