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________________ ( २६ ) का अनुयायी था और बाद में उस ने तत्कालीन प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री हेमचन्द्राचार्य के प्रभाव में आकर जैनधर्म को स्वीकार किया । जैनाचर्य ने राजा कुमारपाल को जैनधर्म की भनी भांति शिक्षा द और उस से मांसाहार का त्याग करवाया । वह जैनधर्म के सिद्धान्तों से इतना प्रभावित हो गया था कि वह वास्तव में अपना जीवन उन के अनुकूल ही बनाने लग गया था। एक दिन वह बड़ा उदास मन होकर गुरुदेव के चरणों में पाया और प्रायश्चित की प्रार्थना करने लगा। गुरुदेव ने पूछाः- प्रायश्चित कौन से अपराध के लिये करना चाहते हो १ राजा कुमार पाल ने कहा कि श्राब मैंने अपने आहार में ढिंगरी या खुम्बों की सब्जी खाई । उस ढिंगरी की सब्जी को दांतों से चला रहा था तो मुझे पूर्वअनुभूत मांस का सा स्वाद आने लगा और मेरी रुचि परित्यक्त मांस की ओर गई । अतः यह मानसिक या भावहिंसा थी। और मैं उस के निवारण के लिये प्रायश्चित करना चाहता हूं। प्राचार्य ने कहा:- हां इस प्रकार की भावमयी या मानसिक हिंसा के लिये अवश्य प्रायश्चित करना होगा। और इस का प्रायश्चित यहो है कि तुम एक पत्थर का टुकड़ा लेकर स्वयं अपने हाथ से अपने दांतों को तोड़ डालो। श्राज्ञा पाते ही कुमारपाल ने झर दातों को तोड़ने के लिये पत्थर उठाया किन्तु वह प्रहार करने को हो या कि गुरुदेव जी ने झर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा:- प्रायश्चित हो मया है । तुम ने वास्तविक हिंसा या द्रन्य रूप हिंसा नहीं की किन्तु भाव रूप में की थी। अब तुम ने अपने दांतो को तोड़ने का हद निश्रय कर लिया है अतएव इस भावमयी अहिंसा से उस भावहिंसा का निवारण हो गया है। उपर्युक्त उदाहरण से पाठकों को भली भान्ति स्पष्ट हो गया होगा जैक जैनधर्म में अहिंसा कितनी चरम सीमा तक पहुंची हुई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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