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जैन धर्म और राजनीति komcxc:MAASEc
वैदिक, जैन और बौद्ध ये तीनों धर्म बहुत प्राचीन काल से साथ २ चले आते हैं। यों तो तीनधिर्मों के प्राचार्यों ने 'अहिंसापरमोधर्मः' अर्थात् अहिंसा ही मानव का महान् धर्म है इस सिद्धान्त को अपने २ दृष्टिकोण से उचित स्थान दिया है किन्तु जैन धर्म में अहिंसा का सिद्धान्त अपनी चरम सीमा तक पहुंच चुका है। अहिंसा का अतिरूप चाहे श्राबकल के समय के अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल उस से यहां कोई मतलब नहीं है । मैं यह बात अवश्य दावे के साथ कह सकता हूं कि अहिंसा का वास्तविक, तात्विक या शुद्ध स्वरूप देखना हो त। जैन धर्म में ही मिल सकता है । जैनधर्म में हिंसा दो प्रकार की मानी गई है, द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा । द्रव्यहिंसा का सामान्य अर्थ है किसी जीव को प्राणों से विमुक्त करना या दूसरे शब्दों में उसे मारना। भावहिंसा वह होती है जिस में विचार से किसी जीव का अनिष्ट किया जाता है। द्रव्यहिंसा का निषेध तो अन्य धर्मों के धर्मग्रन्थों में भी अपने २ दृष्टिकोण से उचित रूप से ही किया गया है किन्तु भाव हिंसा को जितना महत्वप्रद स्थान जैन धर्म ग्रन्थों में दिया है उतना अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। जैन शास्त्रों में भावहिंसा का सूक्ष्मस्वरूप नीचे दिये उदाहरण से पाठकों को स्पष्ट हो जाएगा।
विक्रम् को ११ वीं शताब्दी में गुर्जर प्रान्त के पान नगरमें राजा कुमार पाल राज्य करता था। पहिले वह कुल परंपरागत वैष्णव धर्म
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