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________________ KAJJJJANNNNNNNNNNN श्रमण-संस्कृति का स्वरूप श्रमण-संस्कृति भारत की अतिप्राचीन संस्कृति है । जैन और बौद्ध ये दोनों श्रमण-सस्कृति की ही भिन्न २ धाराएँ हैं । श्रमण शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध दोनों के साधुओं के लिये किया जाता है । यहां श्रमण-संस्कृति से जैन संस्कृति समझना चाहिये । वर्त्तमान समय में तीर्थंकर धर्म के अनुयायियों के लिये जो जैन शब्द का प्रयोग प्रचलित है यह विक्रम संवत् १००० के लगभग ही प्रयोग में जाने लगा | उसके पूर्व इस धर्म को श्रमण धर्म या निर्ग्रन्थ प्रवचन के नाम से पुकारा जाता था । श्रादि तीर्थंकर भगवान् ऋषभ देव स्वामी से लेकर जो परम्परागत प्रवचन चला आता है उसको मानने वाले को श्रमण-धर्मावलम्बी कहते हैं। तीर्थंकर का ही दूसरा नाम जिन है जिसके अनुयायी वर्त्तमान समय में जैन कहलाते हैं । संस्कृति की परिभाषा । सम् उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से भूषण अर्थ में सुट्का आगम करके 'क्तिन्' प्रत्यय लगाने से संस्कृति शब्द बन जाता है । इस प्रकार संस्कृति शब्द का अर्थ होता है भूषणभूत सम्यक कृति । चराचर सारे विश्व में मानव ही एक ऐसा प्राणी है जिसको सम्यक और असम्यक कर्म का विवेक होता है और यही विवेक पशु संसार की अपेक्षा मानव को उत्कृष्ट और उत्तम बनाता है । इसके अतिरिक्त संस्कृति का पूर्ण अर्थ समझने के लिये संस्कार शब्द का अर्थ समझना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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