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पर ही लगाने की शिकायत करेगी। यदि जो घटना हुई है सत्य २ मित्र से बता दू तो यह भी ठीक न होगा क्योंकि मैंने उस दुष्टा का मनोरथ पूर्ण नहीं किया । अतः यह और भी ब्रण पर नमक छिड़कने के समान होगा। यह सब सोच ह' रहा था कि आप मज़ गए। सागरचन्द्र के लिये ये वचन वज्र के समान थे । उसने अपने आपको संभाला और अशोकदत्त को सान्त्वना दी और उसे कहा कि हमारा मित्रता में यह घटना कोई विषमता पैदा नहीं कर सकेगी । परन्तु प्रियः दर्शना के लिये सागरचन्द्र का हृदय टूट चुका था। अब उस हृदय में वह पहले का मान और प्रणय न रह गए थे। उस को अपनी पत्ना प्रियदर्शना के प्राचरण पर पूर्ण संदेह हो चुका था। किन्तु यह सब होते हुए भी सागरचन्द्र ने आवश्यक शिष्टाचार और मर्यादा का उलंघने नहीं किया। अन्दर से सागर का हृदय अवश्य खिन्न रहता था किन्तु उस खिन्नता को उस ने कभी भी अपनी पत्नी के सामने प्रकट नहीं किया। बाहर से वह पूर्ववत् ही प्रियदर्शना के साथ ऐसे शिष्टाचार से व्यवहार करता रहा कि उसे अपने पति पर संदेह तक नहीं होने पाया। प्रियदर्शना ने भी इस भय से कि दोनों मित्रों में उस के कारण वैमनस्य उत्पन्न न हो अशोकदत्त के दुष्टाचार की बात अपने पति से न कही। इस प्रकार उच्चकोटि को मर्यादा पालन करते हुए दोनों ने अपना सारा जीवन बिना किसी कालुष्य के बिता डाला।
प्रियदर्शना की इस कथा से पाठकों को भलीभाँति. पता चल गया होगा कि जैनधर्म में स्त्री का कितना उत्कृष्ट स्थान है। पति के लिये पत्नी के चरित्र पतन से बढ़ कर क्रोध का और क्या कारण हो. सकता है किन्तु, सागरचन्द्र ने यह सब होते हुए भी अपनी पत्नी पर न तो क्रोध ही किया और न कभी उस का निरादर ही। उल्टा उस के साथ ऐसे शिष्टाचार का व्यवहार किया कि उसे. वास्तविक रहस्य तक का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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