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________________ प्रति तुम्हारा क्या प्रयोजन हो सकता है ?' इस के उत्तर में मलिन हृदय अशोकदत्त ने कहा कि इस संसार में जिस मनुष्य ने तुम्हारे दिव्यसौंदर्य को एक बार भी देख लिया है वह तुरन्त अपने लिये तुम्हें पाने का प्रयोजन रखता है। केवल एक तुम्हारा पति ही ऐसा पुरुष है जिस को तुम्हारे प्रति प्रयोजन नहीं है ।' प्रियदर्शना अशोकदत्त के मलिन भावों को समझ गई और उसे ऐसे नीच विचारों के लिये खूब लताड़ा। अशोकदत्त बड़ा लजित हुआ और वह यह कह कर कि यह तो केवल परिहास के लिये कहा गया था निराश होकर भवन से बाहिर आगया । उस की आशा. पर पानी फिर चुका. था अतः वह बड़ा ही खिन और उदास था । एकाएक सागर चन्द्र भी उसे मिल गया और पूछने लगा कि मित्र इस खिन्नता और उदासी का कारण क्या है ? धूर्तता का जाल रचाते हुए अशोकदत्त ने पहले बताने से संकोच दिखाया, अखेिं भर ली और कुछ निश्वास भी छोड़े। यह सब बाल सागर चन्द्र से श्राग्रह कराने के लिये था। बन सागरने श्राग्रह किया तो कहने लगा:- 'मित्र श्राप जानते ही है महिला सब अनर्थों का मूल कारण है। वह बिना बादल को बिजली है, ऐसी व्याधि है जिस के लिये कोई औषधि नहीं होती और ऐसी मोह-निद्रा है जिस का कभी अन्त नहीं होता। स्नेह से परिपूर्ण होते हुए भी जिस प्रकार दीप शिखा जलती रहती है। ठीक यही दशा स्त्री की भी है। श्राज मैं श्राप को ढूंदने के लिये श्राप के भवन पर गया था और वहां एकान्त जानकर प्रियदर्शना ने मुझ १२ अपना कलुषित प्रेम प्रकट किया। बड़ी कठिनाई से अपने श्राप को उस के पंजे से बचाकर पाया हूं। भला मैं आप जैसे घनिष्ठ मित्र को क्या खम में भी धोखा दे सकता हूं। अब सोच रहा था कि क्या मैं प्रारमपात करवंदा न करूँ क्योंकि वह दुराचारिणी अवश्य मेरे प्रिय मित्र के पास भूठा कलंक मुझ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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