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________________ ( ६५ ) के साथ बड़ी शान से उद्यान में पहुंच गए। उधर सागरचन्द्र भी अपने घनिष्ठ मित्र अशोकदत्त के साथ बड़ी ठाठ से वहां गया । जब वहां सब लोग खूब रंग रलियां मना रहे थे और अानन्दसागर में मम थे तो एक अोर से स्त्रियों की भीड़ से कुछ कोलाहल सुनाई पड़ा जिस से बचायो २ का शब्द स्पष्ट सुनाई पड़ रहा था। सागरचन्द्र साहस करके तुरन्त उस ओर दौड़ा । वहां उसने बन्दियों द्वारा पकड़ी हुई पुर्णभद्र की अतिसुन्दरी कन्या प्रियदर्शना को देखा ! उस ने तुरन्त वीरता पूर्वक एक बन्दी से छुरी छीन ली और प्रियदर्शना को उन से मुक्त कराया । प्रियदर्शना इस सुन्दर नवयुवक की वीरता पर मुग्ध हो गई और उस पर प्रेम भाव प्रकट किया ! सागरचन्द्र के हृदय में भी कामदेव के तीर चुभ चुके थे। इतने में प्रियदर्शना का पिता अाया और अपनी कन्या को घर ले गया । सागरचन्द्र के पिता तक भी यह समाचार पहुंच चुका था। सागरचंद्र ने अपनी इच्छा पिता के सामने प्रकट की और पिता ने उस का विवाह प्रियदर्शना के साथ कर दिया और साथ २ सागरचन्द्र को उस के दुष्ट मित्र अशोकदत्त से भो सावधान रहने का उपदेश दिया। सागर ने उस उपदेश को उपेक्षा की दृष्टि से सुना। अस्तु, सागरचन्द्र और प्रियदर्शना बड़े अानन्द से अपना गृहस्थ जीवन बिताने लगे । एक दिन सागरचन्द्र के अनुपस्थिति में अशोकदत्त प्रियदर्शना के पास आया। और कहने लगाः-'क्या कारण है कि तुम्हारा पति धनदत्त की पुत्रवधु के साथ प्रतिदिन छिपकर बातें करता है। प्रियदर्शना का चित्त निर्मल था उसने कहा:-'तुम उस के घनिष्ठ मित्र हो तुम ज्यादा अच्छी तरह समझ सकते हो कि इस में क्या रहस्य हो सकता है।' अशोकदत्त ने कहा कि तुम मेरा एक प्रयोजन पूरा कर दो तो मैं तुम्हें यह रहस्य बता सकता हूं।' शुद्ध हृदय प्रियदर्शना ने कहा:- मेरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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