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________________ (६८) पता न चलने पाया। कितना उच्च था जैन समाज में गृहस्थ जीवन और कैसे उच्चाचरण के मनुष्य तथा देवियां इस में पैदा होती थीं। इस सत्य को प्रियदर्शना की जीवन कथा सदा संसार को बताती रहेगी। __वर्तमान जैन समाज को अपनी प्राचीन संस्कृति कभी नहीं भूलनी चाहिये । प्राचीन जैन संस्कृति में जो स्त्री का स्थान था वह अाजकल के हमारे जैन समाज में कम ही मिलता है। गुजरात प्रान्त को छोड़ कर चाकी राजपूताना और पंजाब आदि पदेशों में स्त्री शिक्षा का बहुत ही कम प्रचार है । साथ २ पर्दा प्रथा की इतनी भयानकता है कि काफी बड़ी संख्या में गृहस्थों के घरों में स्त्री की स्थिति दासी से अच्छी नहीं कही जा सकती। इस पर्दे के कारण से स्त्रीजाति में शिक्षा के प्रचार में भी बड़ी अड़चन पड़ती है। शिक्षा ही विकास का कारण है। वहां प्राचीन जैन समाज में स्वयंवर विवाह की प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित थी वहां आज ऐसी स्थिति है कि विवाह के समय कन्या को सम्मति तक को भी कोई भद्रपुरुष लेता होगा। बहुत से घरों में तो बाल विवाह, कुमोड़ विवाह, वृद्ध विवाह, और दहेजश्रादि की कुप्रथाएं इतना भयानक रूप धारण किये हुए है कि वे भयानक रोग की भाँति उत्तरोत्तर नसमाज के कलेवर को खा रही है। संसार बहुत आगे बढ़ चुका है। हम को भी चेतना चाहिये। जो जाति या धर्म समय की प्रगति की उपेक्षा करता है वह उन्नतिकी ओर बढ़ नहीं सकता । अतएव हमें अपने श्राप को समयानुकूल बनाना होगा । समयानुकूल बनानेके लिये भी हमें कोई विशेष नई चीज़ों को अपनाना नहीं होगा बल्कि अपनी प्राचीन संस्कृति को ही भलीभांति समझना होगा। यदि देश काल परिस्थिति के कारण किसी नई प्रथा को अपनाना पड़े भी और उसके कारण प्राचीन सिद्धान्त की उपेक्षा होती हो तो भी कोई दोष नहीं। एक युग में देश काल और परिस्थिति के कारण जो बातें ठीक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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