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मानी जाती हैं यह जरूरी नहीं कि वे दूसरे युग में भी ठीक मानी जाए। । अतः यदि हम किसी नई प्रथा को भी अपना लें तो वह भी कुछ पालन
के पश्चात् हमारी ही संस्कृति का अंग बन जाएगी। विचारने की बात यही है कि उस से हमारे सामाजिक जीवन को शक्ति मिलती हो । मेरा कहने का अभिप्राय है कि हमें रूढीवादी नहीं बनना चाहिये । फिर हम तो अनेकान्तवाद के अनुयायी हैं रूढ़ीवाद तो हमारे पास फटकना भी न चाहिये । अब वैज्ञानिक युग है जिसमें संकुचित विचारों वाले व्यक्तियों के लिये कोई गौरव का स्थान नहीं । अब हम अपने पूर्वजों के गौरव की कहानियां सुनाकर बड़े नहीं बन सकते किन्तु उन के श्रादर्शों को अपने जीवन में उतार कर ही बड़े बन सकते हैं ।
जैन समाज में जो कुप्रथाएं प्रचलित हैं उनको मिटाने के लिये और नारी जीवन को सुधारने के लिये हमारे नवयुकों को आगे श्राना चाहिये । इस के लिये त्याग और निःस्वार्थ जीवन की आवश्यकता है। नव युवकों को चाहिये कि सर्व प्रथम वे जैन समाज को संगठित कर एक सूत्र में बांधे । इस के लिये एक जैन वीर मण्डल बनाएं जिस की शाखाएं देश में यत्र तत्र स्थापित हों । और उसका एक मात्र काम जैन समाज में फूट के कारणों को दूर करना और समाज के सभी क्षेत्रों में सुधार करना होना चाहिये । स्त्रियों की शिक्षा के लिये स्कूल और विद्यालय खुलवाने चाहिये और जो लोग बालविवाह, कुमोडविवाह.
और वृद्धविवाह करने पर तुले हो उन का घोर विरोध होना चाहिये । दुःखी और निराश्रित विधवाओं की और बाल विधवात्रों की सहायता का भी प्रबन्ध होना चाहिये । जो विधवाएं गृहस्थ में रह कर या साध्वी बन कर धार्मिक जीवन व्यतीत करना चाहती हैं वे सहर्ष वैसा करें समाज को उन पर बड़ा गौरव है किन्तु जो ऐसी बालविधवाएं हैं जो
सांसारिक जीवन के आकर्षणों पर विजय नहीं पा सकतीं उन से ब्रह्मचर्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com