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________________ ( १६७ ) व्यक्तियों की तो बात ही क्या बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा भी श्रात्मशुद्धि के लिये घोर तपस्या करते थे। महाकवि श्री वीरनन्दी जी लिखते है*: "मुनिवर के आगे विनय से सिर झुका कर चक्रवर्ती अजितसेन ने संक्षेप में कहा कि मैं आपके श्राश्रम में ही जाने वाला था। पर मेरे पुण्यों के कारण आप यहीं अागए । जब मनुष्य दुर्गति में गिरने लगता है तब सेना अादि वैभव और बान्धव कोई भी श्राश्रय नहीं दे सकते। यह जानकर मेरा जी चाहता है कि मैं आपकी ही सेवा में रहूं। हे वरदायक, इसलिये प्रसन्न होकर आप मुझे अपनी दीक्षा दीजिये। क्योंकि आपकी थोड़ी सी भी कृपा शुभ करके अशुभ को मिटा देती है। सजनों का अनुग्रह क्या नहीं कर सकता ? इस प्रकार राजा ने जब अपने हृदय की बात कहदी तब समर्थ राजा के साहस की परीक्षा करने के इरादे से मुनिवर ने उन्हें उनकी इच्छा से फेरने वाले वचन कहना शुरू किया । राजन्, कठिन शरीर वाले मुझ सरीखे साधु जने जिस दुकर तप की श्रांचे नहीं सह सकते उसको तुम्हारे मरीखे कुंकुम लेप से लालित सुकुमार लोग कैसे कर सकते हैं ? तुम दयालु, धर्म को ही धन समझने वाले और अपने वैभव को परोपकार में लगाने वाले हो। तुम्हारा चरित्र ऐसा नहीं है कि विद्वान् लोग उसकी निन्दा करें। तुम गृहस्थ हो, तब भी तुम्हारा आचरण तपस्वियों के ही समान है। इस लिये राजन्, श्राप दयालु, साधुवत्सल, मोक्षकामुक बने रहेकर युग भैर इस पृथ्वी का शासन करो। तुम इन अंनाय लोगों को पालों और उबारो। दोनों को उबारने से बढ़कर और कोई तपस्या नहीं है। मुनि के इस प्रकार कहने पर दृढ़-सकल्प राजा ने मोक्ष के मार्ग में दृढ़ होकर फिर इस प्रकार अपने पक्ष का समर्थन प्रारम्भ * देखो चन्द्रप्रभ चरित्र हिं• अं० पृ० ११३, ११४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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