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________________ ( १९६ ) यदि सम्पन्न राष्ट्र और लोग परिग्रह के मोह को त्याग दें तो संसार की सब सामाजिक जटिलताएँ दूर होजाएँ और कठिन समस्याएँ सुलझ जाएँ । यही कारण है कि श्रमण संस्कृति के महर्षि अनादि काल से विश्व को अपरिग्रहरूा महाव्रत का पालन करने का सन्देश देते आए हैं । तप की प्रधानता । उपर्युक्त पांच महावत ही नैतिक आचरण के अ.धार है । इनको कार्यरूप में परिणत करने के लिये तपश्चर्या की आवश्यकता है। तप ही मानव को धर्म की ओर प्रवृत्त कराता है। तप दो प्रकार का माना है:- (१) बाह्य और (२) श्राभ्यन्तर । बाह्य में (१) अनशन, (२) अवमोदरिका, (३) भिक्षाचर्या, (४) रस परित्याग, (५) कायक्लेश और (६) संलीनता सम्मिलित हैं । अभ्यातर ता में (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) व्युत्मग । तपश्चयां से श्रात्मशुद्धि होती है और अन्तःकरण के क्लेश की निवृत्ति होती है। इसके लिये सहनशीलता की नितान्त अावश्यकता है। भगवान महावीर स्वामी ने तपश्चर्या के समय अनेक प्रकार के कायक्लेशों को अविचलित भाव से सहन किया। जब वे अनार्य देशों में बिहार कर रहे थे तो अज्ञानी मनुष्यों ने उन पर कुत्ते छोड़े किन्तु उनकी कुछ भी परवाह न करते हुए वे अपने ध्यान में अटल रहे। श्रमण संस्कृति में प्रात्मशुद्धि को जीवन का लक्ष्य माना है और इसी कारण से तपश्चर्या की प्रधानता है। जैन धर्म ग्रन्थ ऐसे अनेक उदाहरणों से भरे पड़े हैं जिनसे पता चलता है कि साधारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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