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________________ ( १६५ ) अपरिग्रह | संसार के सुखों का अपनी इच्छा से स्याग कर देना, तृष्णा से विरक्ति, और अनेक वस्तुनों के संग्रह का मोह त्याग ही अपरिग्रह कहलाता है । मनुष्य जितना ही अधिक वस्तुनों का परिग्रह करता जाता है, उतना ही उसका उनके प्रति मोह बढ़ता जाता है और उम मोह का परिणाम सदा शान्ति और दुःख होता है । श्रतएव जितना ही कम परिग्रह हो उतना ही मनु य निश्चिन्त, सुखी और प्रसन्न रहता है । सात्विक और सादा जीवन ही सुखकारी होता है । द संसार ने अपरिग्रह के महत्त्व को समझा होता तो ग्राज जो प्रू जिपतियों और साम्यवादियों में सङ्घर्ष चल रहा है और भयानक रक्तपात हो रहा हैं यह कभी न होता | श्रमण संस्कृति के अपरिग्रह आदर्श के अनुसार यदि ससार के लोग सादा जीवन व्यतीत करते और अपने भाइयों के शोषण से पूंजी इबट्ठी न करते तो यह स्वाभाविक था कि वह पू ंजी केवल अल्प संख्यक मनुष्यों के पास न रहकर जन साधारण तक फैली होती । ऐसी स्थिति में साम्यवाद जैसे सिद्धान्त का जन्म ही न हो पाता । अपरिग्रह के महत्त्व को न समझने के कारण ही श्राब मानव दानव बन रहा है। चोर बाज़ारी का बाज़ार गर्म है । परिग्रह के उपासक लोभी और लालची लोगों के कारण श्राज विश्व में असंख्य परिवार अनेक भयानक कष्टों के भार से पिस रहे हैं । अत्यावश्यक जीवन के साधन भी दिन प्रतिदिन दुर्लभ हो रहे हैं और जीवन भार रूप बनता जा रहा है । किसी के पास इतना है कि में लगाता है और अधिक लोगों के पास सामान्यरूप से जीवन निर्वाह भी कर सकें 1 वह व्यसनों । इस प्रकार का महान् विषम अन्तर ही कलह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat · इतना भी नहीं है कि वे मानव और मानव में र रुङ्घर्षका कारण है । www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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