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अन्त में मैं अपने भाइयों से यही प्रार्थना करूगा कि यदि चे जैन संस्कृति को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं तो सब साम्प्रदायिक मतभेदों को और गुटबन्दियों को मिटा दें और जैन समाज में सगठन पैदा कर के उस की उन्नति के लिये कटिबद्ध हो बाएं। वे छोटी २ बानों को ठुकरा कर समाज के सच्चे सुधार क्षेत्र में उतरें, अनेकान्त. वाद का पहले स्वयं पालन करें और फिर उस का उपदेश पूर्ववत् संसार को दें। जैन धर्मावलम्बी अाज अपने धर्म को, अपनी संस्कृतिको
और अपने दर्शन को भूल गए हैं। वे नाममात्र के जैनी रह गए हैं। उन को चाहिये कि वे विश्व को शांति और संगठन का सन्देश देने वाले अपने अनेकान्त दर्शन को समझें और उसको जीवन में उतारें। अनेकान्तवाद के पालन से ही सबका कल्याण हेगा।
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