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श्रमण-संस्कृति में ईश्वर का स्थान
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संसार के सब तत्त्वों और रहस्यों में ईश्वर ही सबसे अधिक दूर वगम्य तत्व और महश्य है । एक ही तत्व की खोज और ज्ञान के लिये जगत् में अनेक धर्म, सम्प्रदाय और सिद्धान्तों की सृष्टि ही ईश्वरीय गूढ़ तत्त्व को सिद्ध करती है। श्रास्तिकवाद से सम्बंध रखने वाले या दूसरे शब्दों में कर्मसिद्धान्त को मानने वाले संसार के प्रायः सभी धर्म और सम्प्रदाय किसी न किसी रूप में ईश्वर की सत्ता को मानते ही है । वे ईश्वर के लक्षण, गुण या परिभाषाएं भले ही अपने २ दृष्टिकोण से भिन्न २ करते हों और मानते हों किन्तु उसकी सत्ता के विषय में किसी को भी विवाद नहीं है। नीचे लिखे उद्धरण से ईश्वर के विषय में अनेक धर्मों और सम्प्रदायों की श्रद्धा का भली प्रकार पता चलता है:
यं शैत्राः समुपासते शित्र इति ब्रह्म ेति वेदान्तिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः । यमित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः, सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥
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अर्थात् जिस ईश्वर को शिवोपासक शिव रूप में, वेदान्ती लोग ब्रह्म रूप में, बौद्ध वुद्ध रूप में, प्रमाणपटु नैयायिक कर्ता रूप में, जैनशासन को मानने वाले जैन श्रईन् के रूप में, श्रौर मीमांसक
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