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कर्म रूप में मानते हैं ऐसा तीन लोकों का स्वामी ईश्वर तुम्हारी इच्छा का अनुरूप फल दे।
अनेक धर्मी और सम्प्रदायों ने ईश्वर को अपने २. सिद्धान्तों में किस प्रकार रंग रक्खा है. उसकी सत्ता में कैमी भिन्नता मानी है
और उसके लक्षण और स्वरूप में कितना अन्तर किया है ये भाव सूत्ररूप में उपयुक्त श्लोक से स्पष्ट समझे जा सकते हैं। इससे यह भी सशष्ट है कि उपासना के प्रकार भिन्न २ होते हुए भी ईश्वरीय मत्ता के विषय में कोई सन्देह नहीं । इमी मन्तव्य की पुष्टि भगवान् कृष्ण गीता में भी अर्जुन को उपदेश देते हुए करते हैं कि जो लोग जिस किसी रूप में भी मेरी उपासना करते हैं उनको मैं उमी रूप में मिलत हूं । जिस प्रकार एक ही नदी के अनेक प्रवाह बन जाते हैं और अन्त में स.रे हो अन्तिम लक्ष्य सागर में जा मिलते हैं इसी प्रकार भिन्न २ धर्मों और सम्प्रदायों के ईश्वर की उपासना के मार्ग अनेक अवश्य हैं किन्तु ईश्वर रूप अन्तिम लक्ष्य सबके सामने एक ही है ।
ईश्वर विषयक ज्ञान की उत्पत्ति का मूल ।
मानव जाति किस प्रकार भिन्न २ अवस्थाओं और परिस्थियों में से गुजर कर उत्तरोतर विकास और उत्थान की ओर बढ़ी इसका बहुत कुछ पता हमें विश्व के प्राचीन इतिहास से चलता है। मानव अपूर्ण है अतः वह सदा से पूर्णता की ओर बढ़ने का प्रयत्न करता -प्राया है। वह सदा से ही ऐसा नहीं रहा जैसा वह अाज है किन्तु उसका श्राब का ज्ञान अनेक सदियों के निरन्तर प्रयत्न का है परिणाम है। इस ज्ञान के उगर्जन के लिये कई बार उसको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किन्तु पूर्णता की ओर बढ़ने की
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