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एक दूसरे से पूछता है यह है -'यार कौनसी सम्प्रदाय को मानते हैं ? दिगम्बरी हैं, श्वेताम्बरी हैं या तेरह पंथो हैं ? इत्यादि यदि दोनों एक हो सम्प्रदाय के निकले तब तो ठीक वरन् उन दोनों का केवल जैन होना उनको एक ही प्रेमसूत्र में नहीं बांध सकता। यहीं तक नहीं एक हा सम्प्रदाय के होकर भी यदि दोनों के गुरु भिन्न हुए तो भी वे एक दूसरे से पीठ मरोड़ कर ही चलते हैं । कितनी छोटी और क्षुद्र बातें हैं ये ! क्या इसी प्रकार के प्रावरण से जैन समाज को उन्नति पथ पर लाने को सम्भावना को जासकता है ? वर्तमान जैन ममाज के प्रायः जितने सुबारक और प्रचारक हैं उन सबका ध्यान एकमात्र बाड़े बन्दियों की ओर लगा हुआ है। सारे जैन समाज का हित किस बात में है इसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता। कोई यह सोचने का कष्ट नहीं करता कि इन वाड़े बन्दियों से सारे जैन समाज का कलेवर जीण होता जा रहा है और उसका फल सारा जैन तमाज भुगत रहा है । कोई भी इस एकान्तव:द के भीषण परिणाम पर ध्यान नहीं देता। यदि देता होता तो इस प्रकार उत्तरोत्तर गुटबन्दियों की अभिवृद्धि न हो पाती। इन गुटबन्दियों के कारण समाज के लाखों रुपये पारस्परिक झगड़ों के परिणामभूत मुकद्दमों को लड़ने में व्यय किये जाते हैं। इस प्रकार समाज सुधार पर धन को न लगा कर उसका दुरुपयोग किया जाता है या दूसरे शब्दों में समाज को बिगाड़ने के लिये धन खर्च किया जाता है। वही धन यदि समाज में शिक्षा प्रचार और साहित्य उन्नति पर खर्च किया जाता तो कितना उपकार और लाभ होता किन्तु इन बातों की ओर ध्यान देने की फुरसत किसको मिलती है, झगड़ों से समय बचे तब न । अस्तु, हमें इन सब बातों को छोड़ना होगा। समाज में संकुचित वातावरण पैदा करने वाली सब शक्तियों का नाश करना परमावश्यक है ऐसा करने से ही हम अनेकान्तवाद की विशालता की ओर बढ़ सकते है।
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