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यह बड़ी.प्रसन्नता की बात है कि अब कुछ सुधारक श्रद्धेय जैन सन्तों के सदुपदेश से जैन समाज में कन्याओं के लिये स्कूल और विद्यालय खुलने लगे हैं । स्त्री जाति की उन्नति के लिये या दूसरे शब्दों में जैन समाज के उत्थान केलिये यह एक सुन्दर कदम है और सौभाग्य से हमारी भावो उन्नति का प्रतीक है। किन्तु हमारी समाज जो कुछ किया जा चुका है उसे ही पर्याप्त समझ कर सन्तोष न कर ले। यह तो केवल भूमिका मात्र है । काम तो अभी सारा ही अवशेष पड़ा है। स्त्री शिक्षा के लिये अभीतक जो कन्या विद्यालय खुले हैं। वे बड़े बड़े कुछ नगरों तथा कसबों तक ही सीमित हैं। उनकी संख्या भी बहुत कम है। स्त्रो शिक्षा के लिये विद्यालय सर्वत्र व्यापक रूप से खुनने चाहिये
और लक्ष्य यह हो कि जैनसमाज में कोई भी स्त्री अशिक्षित न रहने पाए । जब स्त्री शिक्षा व्यापक रूप में फैल जाएगी तो स्त्रियां स्वयं अपने कर्तव्य गौरव और विस्मृत श्रमण संस्कृति को समझने लगेगी और अपने बच्चों में ऐसे पुनीत संस्कार भरेंगी कि भावी जैन सन्तान पूर्ववत् एक उच्च श्रादर्श जीवन संसार के सामने रख सकेगी। स्त्रियां मातृत्व की महिमा को समझेगी और राष्ट्र के सुन्दर और सुसंगठित निर्माण के लिये वीर, विद्वान् और चरित्रवान् पुत्रों को उत्पन्न करेंगी।
वास्तव में देखा जाय तो प्रत्येक राष्ट्र या धर्म के उत्थान या पतन की नीष माता होती है। माताओं के जो भाव और संस्कार होते हैं वे ही बच्चों में प्रतिबिम्बित होकर समाज या राष्ट्र का निर्माण करते हैं । अतएव यदि माताएं सुसंस्कृत हों तो राष्ट्र का उत्थान निश्चित है। और यदि वे पिछड़ी हुई हो तो राष्ट्र का पतन अवश्यंभावी है। यही कारण है कि अनादिकाल से लेकर स्त्री मानवता के इतिहास की प्रधान नायिका रहती पाई है। यही कारण है कि स्त्री की उत्तमता के कारण ही अनेक राष्ट्रों का अभ्युदय हो चुका है और उसी के पतन के
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