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कारण मनुष्यको अपने २ बड़े पतन भी देखने पड़े हैं। सीता के कारण राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए और चिरस्मरणीय रामराज्य का आदर्श संसार के सामने रक्खा । और उधर शूखा की पतित भावना के कारण रावण की इतनी बड़ी सल्तनत का अन्त हुआ । इस प्रकार द्रौपदी के साथ दुर्व्यवहार करने के कारण कौरव प्रजा की दृष्टि से गिरे और अन्त में उन की हार हुई और दुर्गति को प्राप्त हुए ।
अतएव प्रत्येक व्यक्ति का जो अपने आप को जैनधर्मावलम्बी कहने का दावा रखता है कर्तव्य है, कि वह अपनी कन्याको शिक्षा दे । स्त्री शिक्षा के प्रचार के लिये पूर्ण प्रयत्न करे । और कन्या का विवाह पूर्ण युवावस्था को प्राप्त होने पर ही कन्या की रुचि के अनुकूल ही किसी सुयोग्य वर से करे । वाज़ विवाह, वृद्ध विवाह, कुजोड़ विव ह और पर्दा प्रथा ये जैनधर्म की संस्कृति के अंग नही हैं। इन का प्रत्येक बैनी को विशेष करना चाहिये और बो इनका अनुमोदन करते हों उन का विरोध होना चाहिये । जैनधर्म के अनुसार विवाहादि कार्यों में जाति पाति का बन्धन कोई महत्व नहीं रखता, अतः इस जटिल बन्धन को भी तोड़ना जैन समाज की उन्नति के लिये श्रेयस्कर होगा । स्त्रियों के पाठ्यक्रम में धार्मिक पुस्तकें अधिक पढ़ानी चाहिये जिस से वे अपनी प्राचीन संस्कृति को भलीभाँति समझ सकें । इस प्रकार स्त्रोको सामाजिक जीवन में पूर्ण विकास की स्वतन्त्रता देने से ही स्त्री जाति का उत्थान होगा और उस के उत्थान से ही पुरुष और राष्ट्र का भी अभ्युदय होगा । स्त्री जाति के उत्थान से पुन: जैन धर्म में चन्दनवाला और राजीमती जैसी सतियों का जन्म होगा जिन का लोग प्रतिदिन स्मरण करते हैं ।
ब्राह्मी चन्दन वालिका भगवती, राजीमती द्रौपदी । कौशल्या च मृगावती च सुलसा सीता शुभद्रा शिवा ॥ कुन्ती शीलवती नलस्य दयिता चूला प्रभावत्यपि । पद्मावत्यपि सुन्दरी प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥
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