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विमुखता के भार को थोप कर उससे दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिये किन्तु शील के महत्व को समझाकर उसको सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त कराना चाहिये। मेरा तो मन्तव्य है कि यदि जैन शास्त्रों में बताए धर्म पर और नियमों पर हमारे लोग चलते तो न इतनी विधवाएं ही होती और न यह जटिल सप्तस्या ही समाज के सामने उपस्थित होती ।
इस में कोई संदेह नहीं कि प्राचीन काल से जैनधर्म में स्त्रों का उच्च आदर्श सतीत्व रहा है और ब्रह्मचर्य को एक अलौकिक शक्ति और असाधारण तेज माना गया है। वास्तव में यह बात सत्य भी है किन्तु उस समय कुछ वातावरण और था। अब उससे सर्वथा भिन्न है । उस समय लोग अपनी संस्कृति के महत्व को पूर्ण रूप से समझते थे और अपने जीवन में कार्यरूप में उस पर चलते थे। इस के लिये उनके चारों और उच्च धार्मिक विचारों का वातावरण भी अनुकूल था। अाज वातावरण बदल चुका है। अनेक बातियों और धर्मों के साथ निरन्तर सदियों के सम्पर्क से हमारे संस्कार, विचार और रीति रिवाज परिवर्तित हो चुके हैं। अब हम प्रत्येक बात में जैन शास्त्र के विधानके अनुसार चलने का दावा नहीं कर सकते । शुद्ध श्रमण संस्कृति के पालक हम तभी बा - सकते हैं जब कि दूसरे धर्मों के संस्कारों और विचारों का निकाल दें। और रीति रिवाजों को त्याग दें। तब अपने सिद्धान्तों को समझे और उन्हें अपने जीवन में उतारें। फिर सामाजिक बटिल समस्याएं अपने आप हल हो जाएँगी। किन्तु. सदियों का चढ़ा रंग एक ही दिन में नहीं उतर जाता। इस के लिये बड़े कठिन परिश्रम
और त्यागमय जीवन की आवश्यकता है। इस. महान कार्य की पूर्तिके लिये जैन नवयुवक और सुधारक विद्वान् कार्यक्षेत्र में उतरे तो श्रमण
संस्कृति के पुनः अरुणोदय में कोई संदेह नहीं रह सकता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com