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और जहां स्त्रियों का अपमान होता है वहां सभी कर्म निष्फल होते हैं ।
आगे फिर मनु जी लिखते हैं:शोवन्ति जामयो यत्र विनश्यात्याशु तत्कुलम् । न शो वन्ति तु यत्रताः वर्धते तद्धि सर्वदा ।
मनु. अ. ३, श्लोक ५७.
अर्थात्:- जिस किसी कुल की बहुबेटियां किसी प्रकार का क्लेश पाती है वह कुल शोघ्र ही नष्ट हो जाता है। किन्तु जहां पर इन्हें किसी तरह का क्लेश नहीं होता वह कुल सब प्रकार सुख सम्पन्न रहा करता है।
॥ जैन धर्म में ॥
___ स्त्री के लिये अाहत स्थान देने वाले वैदिक धर्म की तरह जैन धर्म में भी स्त्री को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है । किसी भी संस्कृति की उच्चता की कसौटी स्त्री के प्रति तत्कालीन समाज का व्यवहार है। जैन संस्कृति में अनादिकाल से स्त्री जाति को बड़े आदर सत्कार और श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है । जैनधर्म के अवतारों को तीर्थकर नाम से पुकारा जाता है। तीर्थंकर का अर्थ है तीर्थों की स्थापना करने वाले। तीर्थ चार हैं, श्रावक, श्राविका, साधु और साध्वी । श्रावक के साथ श्राविका को और साधु के साथ साध्वी को समान रूप से धर्माचरण की आज्ञा दी है । सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान, और सम्यग् चारित्र ये तीन जैन धर्म के रत्न माने जाते हैं। इन तीनों को उचित रीति से जीवन में उतारने के लिये शिक्षा नितान्त श्रावश्यक है जिस का विधान जैनधर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये समान है। जैनधर्म ग्रन्थों में लिखा है आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com