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लिये लेखन कला का आविष्कार किया। उन्हीं की पुत्री के नाम पर लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा। आज कल जो नागरी लिपि प्रचलित है इस का प्राचीन नाम ब्राह्मी है । इस से यह स्पष्ट है कि जैनियों के तो
आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव भी पुरुष की भांति स्त्री को सुशिक्षित बनाना परमावश्यक समझते थे। अतः जेन समाज में स्त्री शिक्षा का प्रचार और अधिकार अनादिकाल से चला पाता है । नन्दोत्तरा नाम का जैन श्राविका की विद्वत्ता से कौन जैन परिचित नहीं। वह शास्त्रार्थ के निये बहुत प्रख्यात था। उसने हो बौद्धाचार्य महामौद्गल्यायन से शास्त्रार्थ किया था। सुरमंजरी और गुणमाला ये दोनों वैश्य कन्या। वैद्यक शास्त्र की बड़ी पण्डिताएं थीं। इस से यह भी सिद्ध होता है कि स्त्री चिकित्सा के लिये वैद्यकशास्त्र में कुशल स्त्र चिकित्सक मिल सकती थीं और उत्तम कुल की कन्याएं वैद्यक व्यवसाय को प्रसन्नतापूर्वक अपनाती थीं । क्षत्रचूड़ामणि काव्य में लिखा है कि जीवंधर की माता मयूर यन्त्र नामक वायुयान में उड़ना सीखा करती थी। इस से स्पष्ट है कि कठिन से कठिन शारीरिक काम करने में भी स्त्रियां संकोच नहीं करती थीं। और पुरुष के समान ही मशीनरी का सचालन और उस का ज्ञान प्राप्त करना अपने लिये प्रावश्यक समझती थीं। इस से जैन सभ्यता के योवन काल में वायुयान जैसे किसी यंत्र के अस्तित्व का पता चलता है।
* विवाह .
कन्याएं जब पढ़ लिख कर पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हो जाती थी तभी उन का विवाह संस्कार किया जाता था। बाल विवाह को बहुत बुरा माना जाता था। यदि पिता किसी कारण से बीटी उमर में कन्या की सगाई कर भी देता था तो कन्या को युवावस्था तक पहुंचने
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