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________________ ( ८७ ) तक उसका विवाह रोक रखा जाता था । कनकलता को इसी कारण अपने निर्दिष्ट पति से पृथक् रहने की श्राशा दी गई थी । वैसे तो कन्या का पिता भी सुयोग्य वर ढूँढ देता था किन्तु स्वयंवर की प्रथा उत्तम मानी जाती थी । कन्या अपने गुण, कर्म और स्वभाव के अनुकूल योग्य वर चुन सकती थी । वह वर किसी भी जाति का हो इस की चिन्ता नहीं की जाती थी: कन्या वृणीते रुचितं स्वयंवर गता वरम् । कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे ॥ ( हरि० जिनदासकृत ) अर्थात्ः - स्वयंवर में गई हुई कन्या अपनी रुचि के अनुकूल सुयोग्य वर को चुन लेती है । वह वर उच्चकुल का हो या नीचकुल का इस का विचार नहीं किया जाता इस प्रकार जैनधर्म में विवाह का क्षेत्र इतना विशाल था कि कुलीनता, अकुलीनता उच्च या नीच वर्ण या भिन्न धर्म का कोई प्रतिबन्ध न था । यही कारण है कि राजा श्रेणिक ने ब्राह्मणी से विवाह कर लिया था और वैश्य पुत्र बीवंधर कुमार ने क्षत्रिय की कन्या गन्धर्वदत्ता को स्वयंवर में विवाहा था । वणिक पुत्र प्रीतंकर ने अपना विवाह राजा जयसेन की पुत्री के साथ किया था । नन्द राजा महानन्दी की रानियों में एक शूद्रा रानी भी थी। इसी तरह धर्म की भिन्नता भी विवाह में बाधक नहीं बन सकती थी । वसुमित्र श्रेष्ठी जैन थे किन्तु उन की पत्नी धनश्री जैन थो। पुण्यवर्धन जैन था किन्तु उसकी पत्नी विशाखा बौद्ध थी । श्रेणिक के पिता ने अपना विवाह एक भील कन्या से किया था । इसी तरह चारुदत्त का विवाह एक वेश्यापुत्री के साथ हुआ था । इस प्रकार प्राचीन जैन समाज में विवाह के लिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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