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________________ ( ८८ ) विशेष बन्धन न थे। स्त्री जाति को बड़ स्वतन्त्रता थी और विवाह का क्षेत्र बहुत विशाल था। ॥ परदा प्रथा ॥ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परदा हानिकारक हा सिद्ध होता है। जिस वस्तु को जितना अधिक छिपने की कोशिश की नाय उतनी ही देखने वालों की उत्कण्ठा उसे देखने के लिये बढ़ती है । पर्दे के अन्दर छिपा हुश्रा स्त्री का मुखमण्डल दर्शनेच्छुकके चित्त को बेचैन कर देता है । मनुष्य उम के दर्शन के लिये पता नहीं क्या २ विकृत विचार अपने मन में लाता है और तरह २ का अभिनय करता है। यदि वही मुख मण्डल खुला हो तो व्यर्थ की उत्कंठा से सभी मुक्त रहते हैं । अब देखना यह है कि पर्दे का कारण वास्तव में है क्या ? कुछ लोगो का कहना है कि पर्दे से स्त्री के शीलकी रक्षा होती है । वे लोग स्त्री की आटे के दीपक के साथ तुलना करते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार आटे के दीपक को अन्दर रक्खो तो चूहों का डर बाहर रक्खो तो कौत्रों का। ठीक इसी प्रकार का डर स्त्री को भी है, इस लिये उसे लुकाकर ही रखना चाहिये और इस में उसके नाम 'लुगाई' की भी सार्यकता है। परन्तु वास्तव में इस प्रकार के विचार भ्रमपूर्ण ही सिद्ध होते हैं । पर्दा शील की रक्षा में कोई सहायता नहीं कर सकता । शील की रक्षा के लिये तो ज्ञानबल और प्रात्मबल की श्रावश्यकता है। जो स्त्री पातिव्रत्य धर्म के महत्व को अच्छी तरह समझतो है और उसका पालन करती है वह नंगे बदन भले ही कहीं भी फिरे किसी पुरुष की क्या शक्ति है कि उमपर कुदृष्टि डाल सके। यदि स्त्री के विचार ही दूषित हों भले ही श्राप उसको कितने पर्दो में रखें श्राप उसके शील की रक्षा करने में कभी भी सफल नहीं हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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