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सकेंगे। शील की रक्षा बाह्य बन्धनों से नहीं हो सकेगी किन्तु मानसिक बन्धनों से हो सकती है। अतएव शील की रक्षा के लिये पर्दे का अपनाना सर्वथा वृथा है । इस के अतिरिक्त पर्दे की प्रथा स्त्री के स्वास्थ्य के लिये भी बहुत हानिकारक है । हम देखते हैं कि अाज जिन प्रान्तों और जातियों में पर्देकी प्रथा भयानक रूप धारे हुए है उनकी स्त्रियां कमजोर, अशिक्षित और अनेक भयानक रोगों से ग्रस्त पाई जाती हैं । वे श्रादर्श गृहिणी बनने के प्रायः सभी गुणों से वञ्चित होती हैं । मेरे विचार से पर्दा प्रथा हमारी अपनी चीज नहीं है. किन्तु दीर्घ काल के यवन शासन से हमारे में आई है । अस्तु-प्राचीन जैनधर्म इस पर्दे की कुप्रथा के रोग से मुक्त था । जैन महिलाएं घर की चारदीवारी की जेल में बन्द नहीं की जाती थीं । वे घर से बाहिर काम काज के लिये प्राती जाती थीं और समय समय पर विद्वानों से शास्त्रार्थ तक करती थीं। जब वे घर से बाहिर जाती थीं तो लोग उन्हें बड़ी प्रतिष्ठा और सन्मान के साथ देखते थे। साधारण स्त्रियों की तो बात ही क्या रानियां तक राजदरबारों में खुल्लमखुले चली जाती थीं। उत्तर पुराण में लिखा है कि एक बार राजा सिद्धार्थ राजदरबार में मैंटे थे । रानी त्रिशला उन से मिलने के लिये वहां पहुंची। सिद्धार्थ ने बड़े सम्मान से उस को अपने पास राजसिंहासन पर बैठाया। अन्य सब राजकीय कार्यों की अपेक्षा करके सर्वप्रथम उन्होंने त्रिशलादेवी के आने का कारण पूछना चाहा । इस से यह स्पष्ट है कि प्राचीन जैन समाज में पर्दे जैसी भयानक कुप्रथा न थी। वर्तमान जैन समाज के भी काफी लोग इस पर्दे की प्रथा के रोग से बुरी तरह से ग्रस्त हैं । उनको अपने प्राचीन धर्म से शिक्षा लेनी चाहिये और पर्दे के वन्धन को तोड़ कर स्त्री जाति में शिक्षा का प्रचार करना चाहिये । शिक्षाके बिना स्त्री जाति में जागृति नहीं पा सकती और उस जागति के बिना चन्दन वाला, मृगावती, और सुभद्रा जैसी देवियां जैन समाज में पैदा न हो सकेंगी । अतः जैन गृहस्थों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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