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जैन धर्म कहता है कि संसार अनेक प्रकार की भयानक महामारी आदि व्याधियों, भूकम्प, अतिवृष्टि और अनावृष्टि श्रादि प्राकृतिक प्रकोपों में होने वाली अकाल मृत्यु और अन्य महायुद्धादि अनेक भयानक आपत्तियों से भरा पड़ा है। सुख का अंश कम है किन्तु दुःख से पीड़ित प्राणियों का क्रन्दन चारों श्रोर सुनाई देता है । क्या सर्वज्ञ श्री सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने ऐसे संसार को उत्पन्न करना ही पसन्द किया ? क्या वह सर्वशक्तिमान् होते हुए अपनी शक्ति से ऐसे समांर को उत्पन्न नहीं कर सकता था जो सुख, शान्ति और श्रानन्द से परिपूर्ण होता ! ऐसी स्थिति में उसको भी नियन्त्रण करने की परेशानी न उठानी पड़ती । सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने पहले तो सतार को अपूर्ण और शक्ति रहित बनाया और फिर उसके लिये पूर्णता तक पहुँचाने के लिये अनेक नियम धर्म बनाए । कोई साधारण बुद्धि रखने वाला व्यक्ति भी जान बूझ कर किसी वस्तु को पहले बुरी नहीं बनाता कि बाद में उसका सुधार करना पड़े । श्रत एव सर्वज्ञ श्रौर सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने यदि इस संसार को बनाया होता तो अवश्य ही यह पहले से ही पूर्ण और समर्थ होता ।
कुछ विद्वानों का कथन है कि ईश्वर ने ही संसार को स्वा है और इस कारण वह संसार का जनक या पिता है। संसार में जो लोग दुखी, रोगी, शोकाकुल और भूकम्पादि अकाल मृत्यु के प्रास बनते हैं यह सब उनके पूर्व भव या इस भव में किए कर्मों का फल है जिसका भोग टल नहीं सकता । जिस प्रकार पिता सद्गुण पाले पुत्र को पुरस्कार देता है और दुष्ट कर्म करने वाले को इसी प्रकार ईश्वर !भन्न २ अच्छे या बुरे कर्मों दण्ड देता है। सारे संसार का शासन और नियंत्रण
अनुरूप वण्ड देता है
के
अनुसार जबों को
वही करता है
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