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________________ ( १ १ ) यह मान्यता भी युक्ति की तराजू पर ठीक नहीं उतरती । सर्वज्ञ श्रौर सर्वशक्तिमान् ईश्वर जैसा चाहता वैसा संसार बना सकता था । उसने जीवों को बुग कर्म करने की शक्ति ही क्यों दी? पहले उनको बुग कर्म करने की शक्ति दी और जब वे उस शक्ति का प्रयोग करने लगे तो उनको दण्ड दिया । कोई भी पिता पहले अपने पुत्रों को चुरे कामों में प्रवृत्त कराए और फिर उन्हें दण्ड दे, भला यह भी कोई बुद्धिमत्ता कही जासकती है | आदर्श पिता अपने पुत्रों में बुरा कर्म करने की प्रवृत्ति ही नहीं पैदा होने देगा । I जैन मन्तव्य | जैन धर्म के अनुसार कर्मफल दिलाने के लिये नियन्ता की श्रावश्यकता नहीं मानी जाती। जैन धर्म की मान्यता है कि शुद्ध ज्ञान और बड़ वस्तु ये दोनों अनादि काल से मिले हुए चले आते है । ये दोनों ही दृश्य संसार के उत्पन्न करने में कारण है: श्रात्मा का वास्तविक स्वरूप एक ही होता है चाहे वह शुद्ध हो या पुद्गल से मिला हो । सूक्ष्म भौतिक शक्तियों के रूप में आरमा जड़ वस्तुयों से मिला हुश्रा है और इसी कारण श्रात्मा में राग द्वेषादि भाव पैदा होजाते हैं । ये विकार ही अच्छे या बुरे कर्मों के निमित्त कारण बनकर एक तरह से साधन बन जाते हैं, जिनके द्वारा कर्मों के परमाणु आकर आत्मा में मिलते हैं । श्रात्मा के साथ जड़ वस्तु के संयोग से एक प्रकार की शक्ति सञ्चित होजाती है जिसका नव उदय होता है तो श्रात्मा में सुख दुःख उत्पन्न होने लगते हैं। जब यह सञ्चित शक्ति समाप्त हो जाती है तो जद वस्तु श्रात्मा से पृथक होजाती है । अन्त में जब श्रात्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है हो बाह्य वारी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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