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शक्तियों की निर्जरा होजाती है और आत्मा परमात्म पद को.प्राप्त.
होता है। .
... स्सृष्टि की उत्पत्ति ।.. . . : जैन धर्म के सिद्धान के अनुसार संसार को रचना सज्ञान और अशाम दो कारणों द्वारा होती है। या दूसरे शब्दों में छः द्रव्यों जीब-या श्रात्मा, आकास, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म इनके द्वारा होती है। इनमें से एक कारण तो जैसे जीव सज्ञान अर्थात् शन वाला है और शेष पाँच कारण अज्ञान अर्थात् जड़ है। इन छहों द्रन्यों या बस्तुत्रों के अनेक पर्याय. गुण, या स्वभाव से ही संसार की रचना होती है । सज्ञान कारण का स्वभ व जान लेना है और बाकी के पाँच जड़ है बों द्वार है। ये छहों द्रव्य अनादिकाल से विद्यमान है और रहेंगे। किसी खास समय में इनके संयोग से संसार की उत्पत्ति नहीं हुई किन्तु संसार अनादि है। इन छहों द्रव्यों की भिन्न २ परिक्तनशील दशाश्री, पयायो श्रार परस्पर सम.पात से मसार की सृष्टि होती है।
... इन मारे द्रव्यों का व्यापार एक दूसरे पर पड़ता रहता है । इनमें उत्पन्न होने, नाश होने और स्थिर रहने की शक्ति है। इसी . शक्ति को सत्ता भी कहा जाता है। यह सत्ता इन बः द्रव्यों में ही रहती है उनसे भिन्न कोई वस्तु नहीं। या दूसरे शब्दों में इस सत्ता का द्रव्यों से नित्य सम्बन्ध है। इससे यह स्पष्ट है कि संसार को उत्पन्न गा नाश करने वाली शक्त छः द्रव्यों के अन्तर्गत ही विद्यमान है। संसार से पृथक वह कोई शक्ति, सत्ता या व्यक्ति नहीं है। द्रव्यों के
अन्तर्गत रहने वाली इस शक्ति को जैन धर्म ईश्वर नहीं मानता। . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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