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________________ ( ३८ ) वाला ब्राह्मण भी याततायी बन कर आवे तो बिना विचारे ही उसे मार डाले। जैन राजा न्याय मार्ग में स्थित रहते हुए दण्ड तो प्रत्येक अपराधी को देना उचित समझते हैं किन्तु अहिंसा धर्म को सदा दृष्टि में रखते हुए वध के स्थान में उसे देश निकाला देना अच्छा समझते हैं। मारने की अपेक्षा अपराधी को ऐसा दण्ड देना जिस से वह जीवित रह कर आनन्म पश्चात्ताप करता रहे अधिक अच्छा है। श्रपराधो को मार कर नष्ट करने से कोई महत्व नहीं किन्तु उस को ऐसी परिस्थिति में रखना जिस से वह अपनी भूल को समझ सके उस के लिये प्रायश्चित्त कर सके और पुनः एक सच्चरित्र मागरिक बन सके, अधिक अच्छा है । विगड़ी मशीनरी को नष्ट तो हर एक ही कर सकता है किन्तु उस के पुरजों को ठीक कर पूर्ववत् चला देने वाले का ही गौरव होता है । श्राज का सभ्य संसार भी इस सत्य को भलीभाँति समझने लगा है और उसी का यह परिणाम है कि बहुत से पाश्चात्य देशों में अपराधियों को मृत्यु दण्ड का विधान रोक दिया गया है। जैन राजनीति में भी मृत्यु दण्ड का सर्वथा अभाव नहीं है किन्तु दूसरे कठिन दण्डों के सद्भाव में इसका त्याग अधिक अच्छा माना जाता है । वैदिक राजनीति के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अनपत्य मर जाय तो उस की सम्पत्ति की अधिकारिणी उस की पत्नी नहीं हो समती किन्तु " राजगामी तस्यार्थ संचयः " अर्थात् राजा ही उसका अधिकारी होता है। मनु जी का कहना है कि:वशाऽपुत्रासु चैवं स्याद्रक्षणं नकुलासुच । पतिव्रतासुच खीषु विधवास्वातुरासु च ॥ मनु० अ०८. श्लोक २६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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