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सीमित है । इस के अतिरिक्त वेद मन्त्रों में जो केशिन् शब्द अाया है । वह भी ध्यान देने योग्य है ! केशिन् का अर्थ है लम्बे २ बालों वाला। वास्तव में लम्बी २ जटाओं को धारण करने वाले जिन्हें हम आज भी महती संख्या में भारत के कई प्रदेशों में पाते हैं वैदिक सम्प्रदाय के ही साधु होने चाहिये, दिगम्बर जन के नहीं । दिगम्बर साधु विशाल केश धारी नहीं पाए जाते । अतः ऋग्वेद के मन्त्र से यह निर्णय करना कि श्वेताम्बर से दिगम्बर प्राचीन है सम्भव नहीं हो सकता !
वर्तमान जैनधर्म के लिये जो " जैन " शब्द प्रचलित हैं इस का प्रयोग भगवान् महावीर स्वामी के बाद में प्रयोग में आने लगा है। इस के पूर्व तीर्थकर धर्म' को “निग्गंठे पवयणे" अर्थात् निम्रन्य प्रवचन के नाम से पुकारा ज.ता था । महाराज अशोक के शिलालेखों में भी यत्र तत्र 'निग्गंठ' शब्द का प्रयोग पाता है। वहां 'निग्गंठ' से अभिप्राय जैन धर्म से ही है । कुछ विद्वान् निम्रन्थ का अर्थ वस्त्र रहित करते हैं और उससे यह सिद्ध करते हैं कि अशोक के समय में जो जैनधर्म प्रचलित था वह दिगम्बर जैन था क्योंकि दिगम्बर जैनियों की ही मूर्तियां तथा साधु नम पाए जाते हैं । इस प्रकार वे 'निम्रन्थ' शब्द की व्याख्या से दिगम्बर सम्प्रदाय को श्वेताम्बर सम्प्रदाय से प्राचीन सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। मेरे विचार से 'निम्रन्थ, शब्द का अर्थ उन्होंने ठीक नहीं समझा। 'निग्रन्थ' शब्द में "अधि" शब्द का अर्थ वास्तव में राग द्वेषादि ब-धन करना हो उचित जान पड़ता है। प्रात्मा को बन्धन में डालने वाले वास्तव में राग द्वेष ही है न कि बायोपकरण रूप वस्त्रादि । वस्त्रादि बाल परिग्रह को धारण करने वाले शरीर में स्थित श्रात्मा यदि रागद्वेष प्रादि से मुक्त हो जाय तो उसे प्रन्थि रहित समझना चाहिये । प्राध्यात्मिक मुक्ति के लिये ज्ञान की प्रावश्यकता है जिस के द्वारा रागद्वेषादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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