SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शत्रुओं का नाश होता है । वस्त्रादि बाह्योपकरण अात्म धर्म में किसी प्रकार की भी बाधा नहीं डाल सकते। क्या वस्त्रादि . बाह्योपकरणों से दूर रहने मात्र से आत्मा कभी रागादि देषों से मुक्ति पा सकता हैं ? अाजकल भी हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहण हैं जहां वस्त्रादि बाह्योपकरणों के सद्भाव में भी पवित्रात्माएं छिपी मिलती हैं । और इस के विपरीत बाह्योपकरणों से हीन शरीरों में रागद्वेषादि से मलिन श्रात्माएं वर्तमान हैं । अतः अात्म धर्म में बाधक ज्ञान का अभाव हो सकता है वस्त्रादि का सदभाव या अभाव उस के लिये अपेक्षित नहीं । कितने आश्चर्य की बात है कि अाज विकासवाद के युग में भी कितने ही समझदार पुरुष इन बातों को इतना महत्व देते हैं । अस्तु, भेरे विचार से 'निर्ग्रन्थ शब्द का अर्थ रागद्वेषादि बन्धन मुक्त करना हो संगत है। इस प्रकार 'निर्ग्रन्थ' शब्द के आधार पर दिगम्बर सम्प्रदाय की प्राचीनता सिद्ध नहीं हो पाती। . देवसेनाचार्य कृत दर्शनसार नाम का एक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में एक श्लोक अाता है जिस के अाधार पर , कुछ विद्वानों ने दगम्बर मत को श्वेताम्बर मत से प्राचीन सिद्ध करने का प्रयत्न किया है । इस ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम संवत् ६०६ है। वह श्लोक इस प्रकार है :छतीस परिससए विकम रायस्स मरणपत्तस्स । सारह वलहीर उप्परणों सेवड़ो संघो ॥ श्लोक ५१ । अर्थात् विक्रम को मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् सौराष्ट्र देश क वल्लभी पुर में श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई। इस से यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि विक्रम की दूमरी सदी में ही श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई और उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy