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से पूर्ण दिगम्बर संप्रदाय ही परपरा से चला आता था। मेरे विचार से उपयुक्त दर्शनसार का उदाहरण के ई महत्व नहीं रखता क्योंकि इस प्रकार का एक उदाहरण श्वेतांबर ग्रन्थों में भी प्राता है। वह गाथा इस प्रकार है:छब्बास स. स्सेहिं नवुत्तरेहिं सिद्धिगयस्स वीरस्स । तो वोडियार दिट्ठी रहवीर पुरे समुपना। अर्थात्- वीर भगवान् के मुक्त होने के ६.६ वर्ष पश्चात् वोट्टिको अर्थात् दिगम्बरों का प्रवर्तक रथवी पुर में पैदा हुअा।
इस के अतिरिक्त दर्शनसार के उदाहरण के आधार पर यदि श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति विक्रम की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् मान ली जाए तो एक बड़ी अड़चन सामने आती है। महाराज अशोक के पश्चात् कलिङ्गाधिपति खार्वेल बना । वह जैन सम्राट थ । उदयगिरि और खण्डगिरि स्थित हस्तिगुरा नामक गुफा से जो खावेल का शिलालेख मिला है उम का सुयोग्य विद्वान् श्री के० पी० जयसवाल ने विवर्ण दिया है। इस लेख का समय ईस्वीसन् से १७० वर्ष पूर्व निश्चित् किया है। मम्राट खावेल किस प्रकार जैन साधुओं को अनेक प्रकार के कौशेय और श्वेतवस्त्र बांटा करते थे इसका इस शिलालेख में बड़ा सुन्दर वर्णन मिलता है। यदि श्वेताम्बरों की उत्पत्ति विक्रम की दूसरी शताब्दी में हुई होती तो खार्वेल का ईसा पूर्ण १७० में जैन साधुओं को श्वेत् तथा पह वस्त्र बांटना कैसे संगत हो सकता है। अतः यह स्पष्ट है कि दर्शनसार की गाथा दिगम्बर मत की प्राचीनता को सिद्ध नहीं करती।
संसार में जितने भी उच्चकोटि के धर्म है प्रायः सब अध्यात्मिक दृष्टि से पुरुष और स्त्री को ममान अधीकारी समझते है । सब धर्मों के
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