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प्राचीन प्रमाणिक ग्रन्थों में पुरुष और स्त्री दोनों को ज्ञान के समान अधिकारी माना है। गत विश्व युद्ध से भी यह स्पष्ट है कि महिल एं जीवन क्षेत्र के किसी भी विभाग में पुरुषों से न्यून नहीं रही हैं । साहित्य, विज्ञान और राजनीति आदि क्षेत्रों में स्त्रियों ने ऐ। प्रवीणता दिखाई है जिसे किसी भी अंश में पुरुषों से कम नहीं कहा जा सकता। यद्यपि हमारे देश में स्त्री जाति को अबला बाति अथवा निर्बल जाति के नाम से पुकारा जाता है किन्तु संसार के इतिहास में स्त्री जाति के ऐसे वीरता के कारनामें मिलते हैं जिन के सामने पुरुष को भी सिर झुकाना पड़ता है। भारत के अति प्राचीन धर्म ग्रन्थों से भी यह स्पष्ट है कि स्त्री के पुरुष के समान ही अधिकार थे। यहां तक कि यज्ञ में भी पत्नी के बिना पति दीक्षित न हो सकता था। राम ने अश्वमेघ यज्ञ किया तो सीता के अभाव में उस को स्वर्णमयी मूर्ति बना कर रखनी पड़ी। गार्गी की विद्वत्ता से विद्वान भली भान्ति परिचित हैं । इस प्रकार वैदिक धर्म ग्रन्था में स्त्री का स्थान कर्मकाण्ड तथा ज्ञानादि क्षेत्रों में समान है। प्राचीन उपलब्ध शिलालेखों ताड़ पत्र लिखित ग्रन्थों और सिक्कों आदि के श्राधार पर बो गवेषणा हुई है उस से यह स्पष्ट है कि वैदिक धर्म अनेक सदियों से भारत का व्यापक धर्म रहा है । इतने महान् और व्यापक धर्म के साथ २ चलना और अपना संघर्षमय जीवन बिताना एक ऐसे हो धर्म के लिये सम्भव हो सकता है जिस के सिद्धान्त या तो अपने प्रतिद्वन्दी के मुकाबले के हों या किसी दृष्टि में उस से भी उत्कृष्टता रखते हों । मेरे विचार में यदि जैन धर्म प्राचीन काल में स्त्री को ज्ञानक्षेत्र में पुरुष के समान अधिकारिणी न मानता तो वैदिक विद्वान् उसकी ऐसी खिल्ली उड़ाते और उसका ऐसा खण्डन करते कि श्राज उसका
अस्तित्व भी शायद कठिनता से रह पाता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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