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कामिनी सुन्दर सर्पिणी, जो छेड़े तिहि खाय ।
जे गुरु चरनन रचिया, तिनके निकट न जाय ॥ पर नारी नी छरी मति कोई लावे अङ्ग ।
रावण के दस सिर गए, पर नारी के मङ्ग। नारि निरखि न देखिये, निरखि न कीजे दौर ।
देखे होते विष चढ़े, मन आवै कछु और ।। नारि नाहिं जम अहै, तू मन राचे जाय ।
मंजारो ज्यों बोलिकै, काढ़ि कलेजा खाय । नैनों काजर पाइके गाढ़े बांधे केस,
हाथों महंदी लाईक, वाघिनि खाया देस ॥ इस प्रकार समाज को अवनति की ओर ले जाने वाले अन्ध विश्वासी और संकुचितवृत्ति के कूपमंडूकों की कृपा से भारत में स्त्री को अनेक कुत्सित अपमानों का भाजन वनना पड़ा है । ऐसी स्थिति में यदि भारतीय नारी अपनी जाति को पाप कर्मों का फल या ऐश्वरीय अभिशाप समझे तो स्वाभाविक ही है। परन्तु अब विचारणीय बात यह है कि क्या अनादिकाल से वास्तव में स्त्री जाति को इसी दृष्टि से देखा जाता रहा है ? इसका उत्तर यहीं मिलता है-कदापि नहीं । इस में सन्देह नहीं कि चिरकाल से स्त्री जाति को अनेक यन्त्रणाश्रो का सामना करना पड़ा है और उसने बड़े २ राक्षसी अपमान सहे हैं किन्तु वास्तव में जब हम भारतीय संस्कृति की गहराई तक पहुंचते है तो स्त्री जाति का स्थान बहुत ऊंची पाते हैं । पुरुष की सब क्रियाएं स्त्री के बिना अपूर्ण होती हैं। क्रियायें ही क्यों वह स्वयं उसके बिना अपूर्ण है। पत्नी को 'अर्धाङ्गिनी' अर्थात् पुरुष का अाधा अङ्ग माना जाता है । अतः पुरुष स्त्री के बिना पूर्णाङ्ग नहीं कहा जा सकता विष्णु पुराण के चौथे अध्याय में लिखा है :
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