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अर्थात् सब दानों से उत्तम दान भार्यादान करने का है । इस प्रकार स्त्री को रुपये पैसे की तरह दान की सामग्री भी बनाया गया ।
न के लोभी घरानों में तो कन्या की विक्री श्राजकल भी प्रचलित है ।
पुत्र के जन्म पर लोग बधाई देने श्राते हैं और कन्या के जन्म पर सब की नानी मर जाती है । जिन स्त्रियों के सब कन्यायें उत्पन्न होती हैं लोग उनके दर्शन करना पाप समझते हैं और पति
।
उनको छोड़कर दूसरे विवाह कर लेते हैं जिस स्त्री के कोई सन्तान न होती हो तो दोष चाहे पुरुष का ही हो किन्तु वह भी स्त्री के गले मढ़ दिया जाता है। नव विवाहिता वधू के आने के बाद घर में यदि कोई दुर्घटना हो जाए तो वह भी उसी बेचारी के कर्मों का परिणाम समझा जाता है। अधिक कहां तक लिखा बाय दुनिया भरके दोष स्त्री पर थोपे जाते हैं । महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है:
अन्तकः पत्रनो मृत्युः पातालं वडवामुखम् । तुरधारा विषं सर्पो वह्निरित्येकतः स्त्रियः ||३८|२६
अर्थात्ः - बम, वायु, मृत्यु पाताल, वडवानल, छुरे की धार, विष, सर्प और श्रम के साथ नारी की तुलना की जा सकती है ।
चिरकाल से चले श्राते स्त्री जाति के इस अपमान के प्रवाह
में परम भक्त महात्मा कबीर दास भी बह गए । ज़रा उन की विचार धारा पर ध्यान डालिये:
नारी की झांई परत अंधा होत भुजंग,
कबीर तिन की कौन गति, नित नारि के संग ॥
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