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दृष्टास्तीर्थकृतोऽपुत्राः पञ्चकल्याणभागिनः । देवेन्द्रपूज्यपादाब्जाः लोकत्रय विलोकिनः ॥ ६ ॥ अर्थात्- यदि पुत्र की उत्पत्ति ही पुण्यवानी का लक्षण है तो सैंकड़ों पुत्रों वालों की दुर्गति होती क्यों दिखाई देती है ? इस के विपरीत पुत्ररहित तीर्थकर पांच कल्याण के भागी, त्रिलोकदर्शी और इन्द्रादि से पूजित पाए जाते हैं।
जैन सिद्धान्त के अनुसार पिता के कर्मों का भोक्ता पुत्र नहीं और पुत्र के कर्मों का भोक्ता पिता नहीं हो सकता । दोनों को अपने अपने कर्मों का फल स्वतन्त्र रूप से भोगना पड़ता है । यदि पिता दुश्चरित्र और पापी है और पुत्र सक्रियावान् है तो पिता को तो अपने कर्मों का दण्ड अवश्य भोगना पड़ेगा ही। पुत्र अपने शुभ कर्मों का शुभ फल पाएगा। उत्तम से उत्तम पुत्र भी पापी पिता के कर्मों को धोने में कभी समर्थ नहीं हो सकता । पिता की मृत्यु के पश्चात् पुत्र भले ही पिता के कल्याण के लिये कितनी क्रियाएं क्योंन करे किन्तु वे मृतात्मा के लिये सब व्यर्थ हैं । जैन शास्त्रों में श्राद्ध क्रिया का कोई महत्व नहीं है । पुत्र ऐहलौकिक आनन्द का कारण बन सकता है, पारलौकिक क्रिया में पिता के लिये वह कोई महत्व नहीं रखता यह जैन दर्शन का मन्तब्य है।
मनु नी ने द्विजमात्र के लिये ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, भूत यज्ञ, नृयज्ञ ये पांच यज्ञ माने हैं। इन सब का लक्षण करते हुए श्राप कहते हैं कि:अध्याफ्नं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होमो देवो बलि तो नृयज्ञोऽतिथि पूजनम् ।।
मनु अ. ३. श्लो० ७०.
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