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________________ [ ४० । ज्येष्ठेन जात मात्रण पुत्री भवति मानवः । पितृ णामनृणश्चैव स तस्मात्सर्वमर्हति । मनु अ०६, श्लोक १०६. पिता ज्येष्ट पुत्र के जन्म लेते ही पुत्रवान हो जाता है और पितृ ऋण से उऋण होता है अतएव पिता का सब धन पाने का अधिकारी वही है। इस प्रकार मनु जी के मन्तव्य के अनुसार पुत्रहीन मनुष्य की गति नहीं हो सकती। वह मर कर नरक में जाता है। अतः पितरों को पिण्डदान के लिये पुत्र का होना नितान्त आवश्यक है । मनु जी का तो यहां तक कहना है कि पुत्र की उत्पत्ति केवल नरक से बचाती ही नहीं परन्तु स्वर्ग के मार्ग को खोलने में भी एक निश्चित साधन है। श्राप कहते हैं कि:पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते । अथ पुत्रस्य पौत्रण ब्रनस्याप्नोति विष्टपम् ॥ मनु श्र०६. श्लोक १३७. अर्थात्- पुत्र के जन्म लेने से मनुष्य स्वर्गादि लोकों को पाते हैं और पौत्र के जन्म से स्वर्ग में चिरकाल पर्यन्त अवस्थिति होती है और प्रपौत्र की उत्पत्ति से सूर्यलोक में निवास किया करता है । इस प्रकार मनु जी पुत्र के साथ २ प्रपौत्र को भी स्वर्ग का साधन मानते हैं । जैन सिद्धान्त इस के सर्वथा विपरीत है। भद्रबाहु सहिता में लिखा हैपुत्रण स्यात् पुण्यत्वमपुत्रः पापयुग्भवेत् । पुत्रवन्तोऽवदृश्यन्ते पामरा कणयाचकाः ॥ ८ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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