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अर्थात् - शिष्यों को अध्यापन ब्रह्म यज्ञ, पितरों को तर्पण पितृयज्ञ, होम करना देवयज्ञ, जीवांको अन्न की बलि देना भूतयज्ञ, और अतिथि का आदर सत्कार करना नृयज्ञ कहलाता है ।
वैदिक धर्म ग्रन्थों में यज्ञों का बहुत ऊंचा स्थान है । ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञों का विस्तार पूर्वक वर्णन तथा विधान मिलता है । राजा के लिये राजसूय, और अश्वमेधादि यज्ञों का विधान है। बहुत से यज्ञों में पशुवध का भी विधान है। यज्ञ के लिये पशु को मारना भी पाप नहीं समझा जाता उल्टा आगे के जन्म में उत्तम गति पाने के लिये उसे सर्टिफिकेट मिल जाता है । मनु जी का कथन है कि:
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञम्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे
वधोऽवधः ॥
मनु श्र० ५, लो० ३६. अर्थात् स्वयंभू ब्रह्मा ने यज्ञ के लिये और यशों की समृद्धि के लिये पशुत्रों को बनाया है । अतएव यज्ञ में पशु का वध श्रवध अर्थात् वध जन्य दोष रहित है ।
औषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यचः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ॥
श्रीषधि पशु वृक्षादि और पक्षी ये सब पर फिर उत्तम योनि में जन्म ग्रहण करते हैं ।
मनु श्र० ५. लो० ४०. यज्ञ के निमित्त मारे जाने
इस प्रकार वैदिक धर्म ग्रन्थों में हिंसामय यज्ञों का विधान मिलता है । कुछ एक वैदिक विद्वानों ने जो हिंसा में विश्वास नहीं करते वैदिक मन्त्रों का अर्थ अपने दृष्टिकोण के अनुकूल ऐसा किया है कि जिस से हिंसा विधान के प्रतिपादन का निवारण हो जाता है किन्तु
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